रोजमर्रा की छोटी-मोटी शिकायतों या आम-आदमी की भड़ास से परे, इलेक्शंस और EVM वगैरह। ये बुथ मैनेजमेंट और हाई-टैक कंट्रोल क्या होता है? जब ज्यादातर टेक्नोलॉजी के जानकारों को पता है की कोई भी मशीन हैक करना या खुरापाती तत्वों द्वारा कंट्रोल करना कोई बड़ी बात नहीं है तो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग क्यों?
मतपत्र (Ballot Papers), मानों हों chat पत्र। मानो डिफेन्स मिनिस्टर, राजनाथ सिंह ने वसुंधरा राजे को कोई छोटी-सी चैट-पर्ची थमा दी हो, जिसमें लिखा हो,"Males do need reply"। टाइपिंग में गलती हो गई लगता है, mails की बजाय male हो गया शायद? तो करो भजन बैठ कर। लो क्यूट-क्यूट भतीजी और भांजी से बजरंग बली का प्रसाद लो। Wrong Priorities, वो भी हर स्तर पे जैसे। पोस्ट बनती है इसपे।
इलेक्शंस (ELE CTION या EL EC TION ?)
इलेक्शन बॉन्ड्स (ELE CTION BO ND या ? ) 06 10 2008 या। ...... 20 14 या ?
किसी की या किन्हीं की नौकरी की JOINING की तारीख से क्या लेना-देना हो सकता है इन सबका? या फिर अगर कोई सरकार बदले तो आपका प्रोबेशन पीरियड (Probation Period) और उसकी TERMS और CONDITIONS भी बदल सकता है, नई सरकार के अनुसार? जबकि आपकी JOINING और PROBATION PERIOD उस सरकार के आने से काफी पहले का हो? शायद? अगर सारा सिस्टम ही गड़बड़ घौटाला हो तो?
और भी रोचक, इन्हीं खास किस्म की JO B की Joining या उसकी Terms और conditions (Electoral Bonds?) के हिसाब-किताब से अलग-अलग पार्टियाँ, अपने-अपने शुभ-अशुभ घड़ती हैं, रीती रिवाज़ों के भी। ताकी आम-आदमी को उसके माध्यम से फँसाया जा सके, अपने-अपने पार्टियों के जाल में। उन्हीं के अनुसार निकलते हैं, शादियों के खास मुहर्त। और लोगों के जन्म और मरण दिन तक, कुछ-कुछ इसी प्रकिर्या (जुए) को बताते हैं। खास सिस्टम की पैदा की गई बीमारियों के बाद, जब आप डॉक्टरों या हॉस्पिटल में जाते हैं तो उनके अपने होते हैं, कुछ खास किस्म के पते और IDs। ऐसे ही खास IDs के अनुसार होते हैं स्कूल, कॉलेज, विश्वविधालय, उनकी डिग्रीयाँ, उन डिग्रीयों में स्टूडेंट्स की सँख्या या सिलेबस और उनके कोड। ऐसा-सा ही कुछ बाजार का है, जितना मुझे समझ आया। इन सबमें बदलाव भी इसी जुए की राजनीती के हिसाब-किताब से होते हैं। जैसे-जैसे इस जुए की राजनीती में बदलाव होते हैं, वैसे-वैसे डिग्रीयाँ, उनके सिलेबस और स्टूडेंट्स की सँख्या तक निंयत्रण करने की कोशिशों में रहती हैं, ये पार्टियाँ। जितना जिसके हिसाब-किताब से हो जाय, उतना सही। उससे आगे प्रचार-प्रसार तंत्र कब काम आएगा? ऐसे ही एक दिन आसपास बात हो रही थी, जिसमें प्रश्न था की आप ज्वाइन करोगे की नहीं। और मेरा जवाब था, की ऐसी गुंडागर्दी वाली नौकरी से बढ़िया तो अपना खुद का स्कूल या लेखक होना अच्छा। और जवाब मिलता है, "हाँ, 25 स्टूडेंट तो आ ही जाएँगे आपके स्कूल में।" मेरे हिसाब-किताब से तो ये भी बड़ा नंबर बोल दिया बेबे नै, क्यूँकि ऐसे-ऐसे शुभचिंतक जिस घर में घुसे हों, वहाँ कोई भी ढंग की उम्मीद? वैसे भी ये स्कूल खोलने वाला विभाग मेरा नहीं, भाभी का था। मैं तो एक सहायक मात्र थी। उन दिनों भाभी ज़िंदा थी और उनकी भी नौकरी की अपनी तरह की समस्याएँ थी। अब इनके हिसाब-किताब में शायद 25 फिट बैठता हो। मगर हो सकता है, वो सामने वाले का हिसाब-किताब ना हो। इसी तरह बनता है, बेवजह के भावनात्मक भडकाव का वातावरण। मतलब, आपको खुद नहीं मालूम की किसी के नुक्सान से आपको कोई फायदा नहीं होने वाला। मगर किसी ने शायद ऐसा समझाया या बताया और आप हो गए खामखाँ शुरू। आप ऐसे में, ऐसे लोगों को बेवजह को जवाब देने में ना उलझकर, कुछ खास लेखों को पढ़ने और समझने पे फ़ोकस करना बेहतर समझते हैं। इसी सीरीज का हिस्सा है ऑनलाइन ट्रैवेल, खासकर दुनियाँ भर की यूनिवर्सिटीज का। शायद कई किताबों का हिस्सा हो सकता है, वो ट्रैवेल। बहुत कुछ है उनमें, जैसे कोई खास पैटर्न किसी देश या राज्य के अनुसार या खास किस्म के कोड और अजीबोगरीब-सी शायद, बहुत-सी हिदायतें भी।
किसी भी मेहनतकश इंसान को बुरा लगेगा, अगर उसे सालों नौकरी करते हो गए हों और सालों बाद कोई बोले आपकी तो नौकरी ही VYAPAM है। हैरान, परेशान आप लगें ढूंढ़ने, की ये क्या बकवास है? और जवाब मिले घौटाला है। और गलती भी आपकी या आम-आदमी की नहीं, इन खास तरह के गुप्ताओं की है, जो गुप्त-गुप्त खेलते हैं। और जुआरी और शिकारी दोनों है। इस गुप्त हिसाब-किताब से तो, सब कुर्सियाँ और नौकरियाँ घौटाले ही घौटाले हैं। क्यूँकि, पूरा का पूरा सिस्टम ही घौटाला है। वो फिर चाहे सिविल हो या डिफेन्स। और इस हिसाब से उन सबको नौकरी से चलता कर देना चाहिए, जिनकी joining ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे खास किस्म के कोढों की हैं। ऐसे तो सबके पत्ते साफ़। इस हिसाब-किताब से तो
Elections, गड़बड़ घौटाला।
वोटिंग मशीन, गड़बड़ घौटाला
वोटर IDs, गड़बड़ घौटाला
राज्यों के जोड़तोड़ से लेकर (देशों के भी), गाँव के उस आखिरी बूथ तक का हेरफेर और मैनेजमेंट, गड़बड़ घौटाला
सबके सब कोढ़, लीचड़ों के धंधे जैसे।
तो ऐसे में क्या तो प्रधानमंत्री होगा? और क्या कोई सरपंच या पंच? सबका सब, गड़बड़ घौटाला।
और यही हाल सुप्रीम कोर्ट और पार्लियामेंट के हैं। उसपे रोचक ये, की ये सब बताने वाले भी यही महान लोग हैं।
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EV M)? और कितनी ही इलेक्ट्रॉनिक से सम्बंधित शब्दावली (Terminology या codes?)
EVM की कोई खास समझ अपने पास नहीं। मगर इस chat पत्र पे तो एक किताब बनती है शायद। कुछ लिखी जा चुकी, इधर-उधर पोस्ट्स में। थोड़ी-सी मेहनत और सही।
देश, राज्य, जिला, तहसील और गाँव और उनमें बांटे हुए अलग-अलग क्षेत्र। उन क्षेत्रों में अलग-अलग मतदान केंद्र। उन केंद्रों में अलग-अलग बूथ और उन बूथों के नंबर। और उन बूथ नंबरों पे आपके वोट का खास वोटर कार्ड नंबर। आपकी अपनी एक और खास किस्म की ID। कितने घौटाले हैं ना ये IDs भी।
भारत के इलेक्शन (बाकी देशों के भी कुछ-कुछ ऐसे ही हालात बताए) मतलब, उस आखिरी बूथ मैनेजमेंट तक हाई टैक कंट्रोल? लोगों को मानव-रोबोट बनाने के कितने ही तरीके और मकड़ी से जाले, फैले हैं जैसे कदम-कदम पे। ऐसे तो सिर्फ आधार कार्ड ही नहीं, बल्की उससे कहीं आगे चलके आपकी हर तरह की ID, जैसे किसी मकड़ी के जाले।
प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस या सुप्रीम कोर्ट के और जज या कोई भी उन महान कुर्सियों पे बैठे लोगबाग, कहना चाहेंगे अपनी-अपनी कुर्सियों के बारे में कुछ? और क्यों हर आम-आदमी को इस राजे-महाराजों वाले IDs के गलत धंधे में जकड़ा हुआ है? जो आम-आदमी को समझ आता है, वो सब वैसे ही क्यों नहीं है? उसपे जो इस गुप्त सिस्टम को, बाहर आम आदमी तक बताना चाहे, उसे हर तरह से भुगतना भी पड़े। सजा सच बोलने की और इनाम झूठ बोलने वालों को या सच को किसी गूढ़ रहस्य की तरह छिपाने वालों को।
No comments:
Post a Comment