आपकी छवि क्या है? आप कैसे दिखते हैं? First impression is the last impression? सुना होगा कहीं ना कहीं तो जरूर? जब भी हम किसी भी इंसान की छवि की बात करते हैं, तो सबसे पहले दिमाग में क्या आता है? उस इंसान का हुलिया? उस हुलिए में भी सबसे पहले चेहरा? उसके बाद बाकी शरीर संरचना शायद? लम्बा है, छोटा है, पतला है, मोटा है। ठीक-ठाक सा है, या डावां-डौल है? उसके बाद आता है, पहनावा? इन सबके बाद आता है, बोलता कैसे है? हाव भाव, व्यवहार? और भी आगे और बारीकियों पे जाया जा सकता है? ऐसा ही कुछ ना?
सोचो, ये सब भी अगर राजनीतिक पार्टियाँ या बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ, आपपे जबरदस्ती थोंपने लगें तो? एक होता है, आपकी अपनी पसंद क्या है? और एक होता है, कोई आपपे थोंपना क्या चाहता है या चाहते हैं? इस थोंपने में ही, alter-ego/s का जन्म होता है। वो कितने ही प्रकार की हो सकती हैं। लोगों की, पार्टियों की या बड़ी-बड़ी कंपनियों की अपनी-अपनी सोच, सुहलियत या जरूरतों के अनुसार।
वैसे तो ये भी कहा जा सकता है, की हमारी छवि या खुद की पसंद भी हमारी अपनी नहीं होती। वो भी माहौल के अनुसार ढली (conditioned) हुई होती है। आप जहाँ और जैसे लोगों या माहौल में जन्म लेते हैं या पलते-बढ़ते हैं। खासकर, पलते-बढ़ते हैं। वो आपकी सोच को बनाता है और विकसित करता है। वो सोच कितनी विकसित है और कितनी संकीर्ण? ये इस पर निर्भर करता है, की आप कितने संकीर्ण या छोटे से समाज में रहे हैं? या उससे आगे निकलकर, आपने कितनी दुनियाँ जानी, देखी या अनुभव की है। अपने छोटे-से दायरे से जब आप बाहर निकलते हैं, तो वो कुछ-कुछ ऐसे ही होता है, जैसे वो एक कहावत की "अपने एरिया के तो कुत्ते भी शेर होते हैं।" क्यूँकि, जब आप अपने छोटे-से समाज से बाहर की दुनियाँ की तरफ निकलते हैं, तो अपने comfort zone से बाहर निकलने जैसा होता है। वो बाहर का समाज, आपको सिर्फ वो नहीं देता, जो आप लेने के लिए निकलते हैं। बल्की, उससे आगे, कहीं न कहीं, आपकी सोच को ठोकने लगता है। आपके विचारों, पसंद-नापसंद पे चोट करने लगता है। एक तरफ, आपको वो हर कदम पे जैसे चुनौती देता नजर आता है। तो दूसरी तरफ, उन चुनौतियों से निपटना या उनसे सामंजस्य बनाना भी सिखाता है। आप जितना उन चुनौतियों से निपटना या सामंजस्य बनाना सीख जाते हैं, उतना ही उस माहौल में रमते जाते हैं। जितने ज्यादा मौके, वो नया समाज आपको आगे बढ़ने के देता है, आप उतना ही आगे बढ़ते जाते हैं। इसके विपरीत माहौल में, या तो पीछे धकेल दिए जाते हैं या खत्म हो जाते हैं। ऐसे में ये आपको देखना पड़ेगा, की आप कैसे माहौल में रहना चाहेंगे। जब आप गाँवों से शहरों या मेट्रो या देश से बाहर दूसरे देशों की तरफ निकलते हैं, तो कहीं न कहीं, इन सब परिस्तिथियों से गुजरते हैं।
मगर जब आप एक छोटे-से गाँव या कसबे या छोटे-से शहर से आगे नहीं निकलना चाहते, तो या तो आप वहाँ संतुष्ट हैं और सब सही है। या शायद कम्फर्ट जोन से नहीं निकलना चाहते। थोड़ी-सी ज्यादा मेहनत नहीं करना चाहते। थोड़ी-सी ज्यादा चुनौतियों से रुबरु नहीं होना चाहते। वही आपकी आगे बढ़ने की क्षमता को रोक देता है। उसपे, अगर आप कई पीढ़ियों से एक ही जगह पड़े हैं, खासकर गाँव, कसबे या छोटे शहर, तो वहां का हद से ज्यादा चिरपरिचित माहौल, आपको कम्फर्ट जोन से निकलने ही नहीं देगा। और आप हद से ज्यादा वहाँ के, गुप्त सूक्ष्म नियंत्रण के अधीन होंगे। अब वो गुप्त सूक्ष्म नियंत्रण कितना आपके फायदे में है और कितना नुकसान में, ये तो आप अपने, अपने घर के या आसपास के हालातों से जान सकते हैं। सोच के देखो की आप जहाँ हैं, वहाँ कब आए थे? कहाँ से आए थे? क्यों आए थे? उसके बाद किस पीढ़ी ने संघर्ष करके, आपको वहाँ बसाया या आगे बढ़ाया? और किसने पीछे धकेलना या डुबोना शुरू कर दिया? शायद उन्होंने, जिन्होने आपको इतना आराम-पसंद बना दिया की उनका गुजारा तक माँ-बाप के सहारे या किसी और के सहारे हो? आश्रित? नालायक? हरामखोर? कितने ही ऐसे-ऐसे और शब्दों से नवाज सकते हैं, आप उन्हें शायद? हमारे गाँवों, कस्बों या छोटे-छोटे शहरों में, कितनों के ही ऐसे हाल हैं? इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती, की वहाँ का सिस्टम भी कहीं न कहीं नकारा है। मगर उस सिस्टम से बाहर निकलने के रस्ते हैं। खासकर, अगर वो सिस्टम आपको जबरदस्ती, पीछे कहीं धकेलने की कोशिश करे तो।
आओ, छवि का एक उदाहरण यहाँ लेते हैं। मेरे सिर के बालों ने कई वक़्त देखे हैं। वैसे ही जैसे, मैं आजकल आसपास के बच्चों के बालों के रंग-रूप, बनावट और स्वास्थ्य को स्टडी कर रही हूँ। इतने कम सालों में, इतनी तेजी से बालों का रंग-रूप बदलना या बनावट बदलना, न तो सही है और न ही अपने आप। ये गुप्त सिस्टम का धकेला हुआ प्रहार है। गुप्त सिस्टम का धकेला हुआ प्रहार, वो भी बच्चों पर? कितना निर्दयी होगा ऐसा सिस्टम? ये सिस्टम दुनियाँ में हर जगह है। मगर, नजर सिर्फ तब आएगा, जब आप इसे सूक्ष्म स्तर पे अध्ययन करना शुरू करेंगे। जब नजर या समझ आने लग जाएगा, तो आप उसके बुरे प्रभावों को कुछ हद तक रोक पाएँगे। या शायद चाहेंगे, की ऐसे बेहुदा धकेल सिस्टम से थोड़ा दूर निकल जाएं। कम से कम, बच्चों को तो तभी बचा पाएँगे, ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे प्रहारों से।
इस छवि वाले राजनीतिक सूक्षम प्रबंधन में, दो तरह के खास छद्दम युद्ध हैं, जितना अब तक मैं समझ पाई। इन्हें गुप्त भाषा में ब्रूमिंग (Brooming), और ग्रूमिंग (Grooming), जैसे शब्दों से परिभाषित किया गया है। स्वीपिंग (Sweeping) और स्वैपिंग (Swapping) भी शायद? पार्टियों का छद्दम युद्ध इसके कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, आप अपने आसपास भी देख सकते हैं। जैसे PM का सफाई अभियान। हाथ में क्या होता है? झाड़ू या वैक्यूम क्लीनर या कुछ और? वैसे ही जैसे, AAP का तो चुनाव चिन्ह ही झाड़ू है। मगर फोकस? सिर्फ साफ़-सफाई नहीं। बल्की स्कूल, हॉस्पिटल। खासकर, मो-हल्ला क्लीनिक। क्या इन सबका बच्चों के बालों के रंग-रूप, बनावट और स्वास्थ्य ही नहीं, बल्की ज़िंदगी पर भी किसी तरह का असर हो सकता है?
जानने की कोशिश करते हैं, अगली पोस्ट में, की विज्ञान, राजनीति, रीती-रिवाज़ और उन सबको, कैसे गूँथ दिया गया है या बाँध दिया गया है, आम आदमी की ज़िंदगी से? जिसके प्रभावों या दुष्प्रभावों से, इंसान ही नहीं, बल्की कोई भी जीव या निर्जीव अछूता नहीं है। उसके दुस्प्रभावों से बचने के लिए या उसपे नकेल डालने के लिए बहुत जरूरी है, इस सिस्टम (राजनीती और बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ) के सूक्ष्म प्रबंधन को जानना। ये राजनीतिक सूक्ष्म प्रबंधन, आपके हुलिए, पहनावे, खाने-पीने, कहीं रहने या बोलचाल की आम-भाषा तक नियंत्रित करता है। आप सोच रहे होंगे, की इतना सब कैसे संभव है? संभव ही नहीं है, बल्की हो रहा है। ये सामाजिक घड़ाई (Social Engineering) का अहम हिस्सा है। जितना ज्यादा सूक्ष्म स्तर पे नियंत्रण होगा, इंसान उतना ही ज्यादा, इन राजनीतिक पार्टियों और बड़ी-बड़ी कंपनियों के कब्जे में होगा। यही मानव रोबोट बनाने की प्रकिर्या है।
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