ये कल्पना विभाग है। यहाँ पे आप जो चाहे सोच सकते हैं। कल्पना कर सकते हैं। उसे शब्दों में पिरो सकते हैं। मगर, . . मगर --
उसे होता हुआ देखना या हकीकत में पाना? थोड़ा मुश्किल है। असंभव नहीं है। परन्तु थोड़ा-सा मुश्किल जरुर है। इन्हीं मुश्किलों को पार करने के चक्रों में, आप जिसे गॉड-ना चाहें, वो तो पता नहीं, गुडे गा/गी की नहीं, मगर इसी प्रकिर्या (Process) में कितने ही भोले, नादाँ, अंजान, अनभिज्ञ, लचर और लाचार लोगों को जरुर गॉड सकते हैं। इनमें बहुत-सी बेबस औरतें भी हो सकती हैं, नन्हें मासूम बच्चे भी हो सकते हैं और बुजुर्ग भी। अब ये गॉड-ना या ऐसी-तैसी करना के मायने या प्रकार भी काफी किस्म के हैं। मानव रोबॉट घड़ने वालों ने अभी तक ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे कमाल जरुर किए हैं। इन सब में जरुरतों को घड़ा गया है, खासकर ऐसी जगह, जहाँ सब सही था, वो जरुरतें थी ही नहीं। उसपे जरुरतों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है। Desperate जैसे।
जो सच में Desperate जैसे हैं, यहाँ उनका ख्याल नहीं रखा गया। बल्की, अच्छे खासे खाते-पीते लोगों को उजाड़ कर, आपस में भिड़वा कर, एक दूसरे से दूर कर, लोगों की छोटी-मोटी खामियों का शोषण किया गया है। उसपे उन्हें इतना निराश किया गया है या कहना चाहिए की ज्यादा से ज्यादा ऐसा गाया और दिखाया गया है, जो हकीकत के बिल्कुल विपरीत हो। हालात, माहौल ऐसे दिखाओ और बनाओ की जो चाहते हो करना, वही हो। अपने आप हो। आपको उसपे बहुत ज्यादा मेहनत भी ना करनी पड़े। ठीक वैसे, जैसे Bio में जीवों के लिए Media Creation होता है।
कल्पना विभाग के गड़रियोँ की कुछ-कुछ ऐसी ही कहानियाँ हुई हैं, आसपास। सामाजिक घड़ाईयोँ को समाजिक लैब में होते देखना है, तो लैबों से निकलकर थोड़ा इन सामाजिक लैबों के आसपास पहुँचों। बहुत कुछ समझ आएगा, इस Social Engineering के बारे में। मानव रोबोट घड़ने वालों के खतरनाक इरादे और मास्क लगे हुए चेहरे, सब साफ-साफ उतरते दिखाई देंगे। आम आदमी जब तक इतना तक नहीं जान पाएगा, वो अपनी और अपनों की ही तबाही पर जश्न मनाता नज़र आएगा। जब आँखें खुलेंगी, तो हाथ पल्ले कुछ नहीं होगा। या हो सकता है, ये सब देखने के लिए वो खुद ही ना हो। बहुत से केसों में ऐसा हो चूका, और कुछ ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी बेहुदा समान्तर घड़ाईयाँ चल रही हैं। चलती ही रहती हैं। क्या खास बात है?
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