जादु (Manifestations and Manipulations)
काला जादु
धोला जादु
हरा जादु
पीला जादु
नीला जादु
और जाने कैसा-कैसा जादु!
कैसे घड़े जाते होंगे, ये जादु?
काला जादु
आपको किसी ज़िंदगी में फिट करना है। अरे नहीं, यूँ कहना चाहिए, की किसी की ज़िंदगी, आपका प्रयोग करके फिट करनी है। रखैल का काम करेंगे क्या? चौंकिए मत, आपको बताया नहीं जाएगा। आप क्या पता ज्यादा नहीं तो थोड़े बहुत समझदार हों, और ऐसे काले जादुओं के चक्कर में ही न आएं? ये तो दिक्कत वाली बात हो गयी ना?
आपके आसपास वालों का प्रयोग (दुरूपयोग बोलना चाहिए) कब काम आएगा? समझदार लोग, ऐसे किसी शैतान को आसपास भी न फटकने दें। पर दुनियाँ में भोले लोगों की कमी कहाँ है? जाने कैसे-कैसे झाँसों में आ जाते हैं। उन बेचारों को पता ही नहीं होता की समझदार आदमी कोई भी बात आमने सामने करता है -- खासकर जब रिश्ते की बात हो। पर वो क्या है, गधों (भोले लोगों) के यहाँ, आज के वक़्त में भी गंधर्व विवाह जैसा कुछ होता है। और उसमें भी हेरफेर ये, की परीक्षा होगी? ये कौन सी आदिम जाति के राम को पकड़े हुए हैं?
पहली बात, हमारे यहाँ ऐसा कुछ होता नहीं। दुसरी, जहाँ लड़की या लड़का पसंद हो, और किसी तरह की रूकावट या अड़ंगा लगे, तो सीधे कोर्ट पहुँचते हैं, शादी करते हैं और घर जाके बोलते हैं, अब करलो जो करना हो। मस्त है ना? ये इंसानों पे प्रयोग-वरयोग, लफंडरों के काम होते हैं और ज़िंदगियाँ बर्बाद करते हैं।
काला जादु मतलब कालिख़? दिलो-दिमाग से काले लोग? अरे नहीं, सत्ता के दायरे में वो ऐसी भाषा प्रयोग नहीं करते। उसे बड़े-बड़े नाम दे देते हैं -- जैसे चाणक्य नीति? सत्ता संघर्ष? अंग्रेज टाइप हों तो Inclusive? Progressive? Justice? हरेक रंग कई-कई परिभाषाएँ लिए होता है। तो काला रंग आम आदमी के लिए अगर कालिख़ हो सकता है, तो राजनीति के लिए शौर्य, वीरता का प्रतीक भी।
माएँ, अक्सर बच्चे के कान के पीछे काला टीका लगा देती हैं, और बोलती हैं, किसी की नज़र न लगे। बाबे- शाने, काले गंडे, मालाएं, ताबीज़ और भी पता नहीं क्या-क्या दे देते हैं। इन्हेँ गले में डालो। इन्हें हाथ में या पैर में। इसे यहाँ रखो या वहाँ। माँ या अपना बंदा कुछ ऐसा करता है, तो दिल से तो शायद दुआ ही निकलती होगी। मग़र किन्ही बाबे-शानो पे यक़ीन करना? इतने चक्रों में पड़ना ही क्यों?
अक्सर ऐसा भी देखने में आया है की ज्यादातर लोग, जो इस तरह के परचंगो में विश्वास रखते हैं, अक्सर ऐसी या वैसी परेशानी में ही रहते हैं। या ऐसी शंकाओँ के दायरे में। और ज़्यादातर कम पढ़े-लिखे होते हैं।
ज़्यादातर! हमेशा नहीं। क्यूंकि कई-बार, बड़े-बड़े, पढ़े-लिखों को भी, ऐसे अंधविश्वास वाले केसों में उलझे देखा है, की रोंगटे खड़े हो जाएँ। सालों पहले रोहतक मेडिकल का ही, डॉक्टर का एक ऐसा केस, जो अखबारों की सुर्खी बना -- डॉक्टर बाप ने, बाबे की मानकर, घर की सुख-शांति के लिए, बच्चे को काट डाला। ज्यादा ख़ून बहने से, बच्चे की मौत। ये तो थोड़ा ज्यादा ही हो गया। नहीं ?
धोला जादु
कटपुतली का खेल देखा है ? उँगलियों पे नचाना, जैसे?
जब हम Manipulations या Manifestation की बात करते हैं, तो उसकी पहली-सीढ़ी किसी धागे या ताबीज़ या किसी वस्तु को कहीं किसी कपडे आदि से ढ़ककर रखना होता है। उसकी योजना (Programming) की अगली सीढ़ियाँ, ऐसा कुछ आपको बार-बार दिखाना, बताना, सुनाना या महसुस करवाना होता है, जिससे वो आपके दिमाग में बैठ जाए। वैसे ही, जैसे बच्चों या पालतु पशुओं की ट्रेनिंग होती है।
एक शिक्षा के उच्तम पायदान या कहें सीढ़ी पर :
हाँ में हाँ मिलाना, मतलब तरक़्क़ी पाना? या सही को सही और ग़लत को ग़लत कह पाने की हिम्मत रख पाना? हिम्मत क्यूँ? शिक्षा के उच्त्तम स्तर पे तो आज़ादी नहीं होती होगी, विचारों की अभिव्यक्ति की? गलत-सही के मुलयांकन की ? वाद-विवाद की? हाँ! किसी तालिबानी जैसे इलाके में ज़रूर, विचारों की स्वतंत्र-अभिव्यक्ती पर पाबंदी हो सकती है। हो सकता है वहाँ वाद-विवाद जैसा, कोई तरीका ही न हो।
और कुछ थोंपने की कोशिश करना ? जैसे आपके अंदर 1, 2, 3, 4, 5, 6 और भी पता नहीं, कितनी उँगलियाँ वास करती हैं? कैसा लगेगा, आपको ये सब सुनकर या देखकर? ये बेहुदा इंसान किसी पागलखाने से छूट के आया है क्या? नहीं ? आप शायद शिकायत करेंगे Sexual Harassment की। उसी दायरे में आता है ना, ऐसा कोई शब्द, वाक्या, चिन्ह, तस्वीर आदि किसी को दिखाना?
नफरत नहीं होने लगेगी, ऐसा दिखाने या बोलने वालों से? बैठने की, बोलने की, हावभाव की, अपनी एक अहमियत होती है, खासकर पब्लिक स्थानों पर। हाँ, किसी तरह की राजनीति में शायद ऐसा संभव है। क्यूंकि राजनीती, ज्यादातर लिचड़ों का ही खेल ही है, सभ्य लोगों का नहीं? माफ़ी सभ्य लोगों से, क्यूंकि राजनीती में भी काफी शालिन लोग भी हैं। मगर ऐसा शिक्षा-संस्थानों या समाज में आम होने लगे तो? खतरनाक है, ऐसे शिक्षा संस्थानों या किसी समाज के लिए।
बार-बार, ऐसा कोई शब्द या इशारा, किसी के सामने बार-बार करने से, मना करने के बावज़ूद, एक तरफ जहाँ उस आदमी की नजर में आपके प्रति नफ़रत भरता है। वहीँ, दूसरी-तरफ, ऐसा करने वाले के दिमाग में, उसकी Programming गलत और सही का भेद ही खत्म करने लगती है। हो सकता है, जाने-अनजाने, आप ऐसे शब्दों को अपनी आम बोलचाल की भाषा का ही अंग बना चुके हों।
ऐसा ही कुछ, कुछ वक़्त पहले, आसपास के कुछ पड़ोस के बच्चों के, किसी गाने या डांस में देखने को मिला। और अज़ीब बात ये, की वहां पे बैठे कुछ समझदार (?), उस बच्चे को समझाने की बजाए, ऐसा करने के लिए उकसा रहे थे ! वो बच्चा इतना छोटा है, की उसे मालुम ही नहीं, की इसमें गलत क्या है और सही क्या। उस बच्चे के आसपास खड़े, कुछ उससे थोड़े बड़े बच्चे भी उसका आनंद उठा रहे थे, बिना जाने की इसमें ग़लत क्या है।
वक़्त के साथ, ये धोला जादु, जाने कहाँ-कहाँ दिखने लगता है। इसी को Programming की अलग-अलग सीढ़ियाँ कहते हैं। इसके बाद शुरू होती है Processing (प्रकिर्या)। इसमें इंसान जाने-अंजाने ऐसा कुछ करने लगता है, जो सभ्य के दायरे से थोड़ा परे है। मगर फिर भी, सबके सामने कर रहा है, या बोल रहा है। और उसे शायद मालुम ही नहीं, की उसका मतलब घड़ने वालों की योजना के अनुसार क्या है। गुस्से में कहीं अजीबोगरीब शब्दों का प्रयोग तो नहीं करने लगे आप? सोचो, वो सब आपने कहाँ सुना या कहाँ से आया? अजीबोगरीब ढंग से ताली बजाना? अजीबोगरीब ढंग से उंगलियों को या हाथ को अपना पॉइंट जोरदार ढंग से रखने के लिए प्रयोग करना। और भी कई तरह की हरकतें, इधर उधर देखने-सुनने को मिल सकती हैं , इधर-उधर के लोगों की बातों ही बातों में।
इसके आगे की सीढ़ी, लोगों को अजीबोगरीब वक़्त पे सुला देना। अब ये कैसे संभव है? हो सकता है जाने-अनजाने, ऐसे लोगों के खाने-पीने में सोने की दवाई जैसा कुछ मिलाया जा रहा हो? कुछ को डॉक्टर ने ही सलाह दी हो? या कुछ परेशान ज्यादा रहते हों और नींद न आती हो और खुद ही लेने लगे हों। वक़्त के साथ इनके अपने दुष्प्र्भाव शुरू होने लगते हैं।
ऐसा ही कुछ नीला, पीला, हरा जादु जैसे Manifestation और Manipulation की हक़ीक़त है। और ये सब अचानक नहीं आता। इनका प्रभाव इंसानों पर धीरे-धीरे वक्त के साथ होता है। इन जादुओं को आप आसपास देख भी सकते हैं। माथे पे अलग-अलग तरह के तिलकों के रूप में। घरों पे लहराते कुछ झंडों में। या इधर-उधर बंधे धागों में। इंसानों पर, जानवरों पर, पेड़ों पर या शायद कुछ इमारतों पर। ज्यादातर आस्था के साये में पल बढ़कर, धीरे-धीरे किसी समाज के रीति-रिवाज़ों का हिस्सा हो जाते हैं।
अगर मंदिरों की जगह, मस्जिदों की जगह, पुस्तकालयों का चलन बढ़ा दिया जाए तो शायद ऐसे-ऐसे कितने ही अन्धविश्वाशों और उनके दुस्प्रभावों से निपटा जा सकता है। जैसे किसी भी पिछड़े इलाक़े को आगे बढ़ाने का तरीका है, शिक्षा को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देना।
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