How is that possible?
बुरा वक्त सिर्फ प्रश्न नहीं लिए होता, बल्कि, कभी-कभी जवाब भी साथ लिए होता है?
ऐसा ही कुछ, इस दौरान हुआ और शायद हो रहा है।
1st Feb, 2023
"दीदी, ये क्या हो रहा है ?"
"राजे-महाराजों के युद्ध में आखिरी लाइन की गोटियाँ हो, जो सबसे पहले खत्म होती हैं। जिनके पास न दिमाग़ है, और न ही पैसा। दोनों में से एक भी हो, तो कुछ हद तक तो बचाव हो ही जाता है। "
2nd, Feb, 2023
"ये कुत्ता यहाँ क्या करने आया है? जले पे नमक छिड़कने?"
"राजनीती है ये। सिर्फ़ जले पे नमक नहीं।"
"इग्नोर मारो। ज़्यादा भेझे पे लेने की जरुरत नहीं। "
3rd, 4th 2023
"कौन कितना लूटी, कौन कितना पीटी और भी पता नहीं क्या-क्या! कहानियाँ ही कहानियाँ!"
और उसके बाद टॉपिक ही बदल गया। थोड़ी दूरी पे, एक और औरत की मौत हो गयी थी। उसकी मौत की कहानियाँ, ऐसे आ रही थी, जैसे बताने वाले के पास ही सारा सच है। इधर वाला, इधर की घड़ाई घड़ रहा था। उधर वाला, उधर की। इससे ये भी कुछ-कुछ समझ आया, की लोग जितने ज़्यादा ठाली हैं, उतनी ही ज़्यादा तरह की घड़ाई हैं।
इसी दौरान, कुछ और भी शुरू हो चुका था, जो ज़्यादा अहम् था। या मौलड़ ही कुछ ज़्यादा हैं? -- की, जाने वाली को अभी, दो-दिन नहीं हुए, नयी लाने वालों के चर्चे शुरू हो गए! या शायद, एक ख़ास किस्म की पढ़ाई का असर, जो कहीं न कहीं, इस या उस राजनीतिक तानेबाने से परोसी जा रही है? क्यूँकि, ऐसा व्यवहार करने वाले खुद कहीं न कहीं भुक्तभोगी हैं। और परिस्थितिवस, राजनीतिक शौषण और मानसिक दुहन का शिकार भी?
इसका साफ़-साफ़ असर, बच्चे के अचानक बदले व्यवहार और अजीबोगरीब प्रश्नों से समझा जा सकता था। तेहरवीं तक के वक़्त की दूरी में ही, उस अपरिपक्कव दिमाग़ में, इतना कुछ आ चुका था या ठूसा जा चूका था, जो सिर्फ़ और सिर्फ, राजनीतिक किस्म की घड़ाई से आ सकता है। या कुछ हद तक, जो आसपास उसने सुना, उसके असर से भी?
ज़मीन जायदाद की बातें। दिमाग के ऊपर से निकलती हुयी, इधर-उधर की बातें। काम की बातों से परे, बेक़ाम की बातें। मगर बच्चों के साथ अच्छा ये होता है, की ऐसी पढ़ाई, बहुत-ही क्षणिक असर वाली होती है। उसपे, वो जल्दी ही उड़ेल भी देते हैं, की किसने क्या कहा!
बहुत बार, बहुत-सी चीज़ें, आप ये सोचकर जाने देते हैं, की पता नहीं सामने वाला किस परिस्थिति से गुजर रहा है। ऐसी बहुत-सी परिस्थितियों में जो समझ आया, वो ये, की शायद parallel cases घड़ने की, कुछ ज़्यादा ही कोशिशें हो रही हैं। हक़ीक़त, जो घड़ने की कोशिश है, उसके आसपास भी नहीं है। इस पार्टी की कुर्सियाँ, ये घड़ने से चलती हैं। तो, उस पार्टी की, वो घड़ने से। इस घड़ाई में, आम-आदमी की चिंता या फ़िक्र है ही कहाँ? वो फिर चाहे बच्चा ही क्यूँ न हो।
Ditto, Campus Crime Series and loopholes. That's why I said, " In society, such cases creations and enforcements are even more visible and dangerous."
राजनीती के इन जालों में उलझकर बहुत से आम आदमी यही भूल गए हैं, की ये रस्साकस्सी राजनीतिक है। उनकी ज़िंदगी का हिस्सा ही नहीं है। फिर क्यों वो जबरदस्ती उस रस्साकस्सी का हिस्सा बन रहे हैं?
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