थोड़ी दिशा मिले तो
चल निकलेंगे
ऐसा मेरा विश्वास है
बेकार नहीं हैं वो
दिशाहीन कह सकते हैं
वो भी, अज्ञानता की वजह से
मानव संसाधन (Human Resource) का ज्यादा ज्ञान तो नहीं मुझे, पर शायद थोड़ी-बहुत समझ जरूर है। इंसान, बेरोज़गार तो हो सकते हैं, मगर बेकार नहीं। बेकार है तो वो सिस्टम, वो सामाजिक-राजनितिक तानाबाना, जो उन्हें सही दिशा नहीं दे पाता। क्यूँकि अपने-अपने निहित स्वार्थों के लिए उन्हें ठाली लोगों की एक फ़ौज़ चाहिए। सब अपने-अपने काम लग गए, तो "टुकड़े डालो, कुत्ते पालो" या प्रश्न करने वालों के लिए "लठ्ठ लाओ, मार भगाओ", वाली सोच की राजनीती कैसे चलेगी?
फुट डालो, राज करो के शिकार हैं ये। जिन्हे अपने ही आसपास के लोगों को नीचे गिरने या गिराने में अपना फायदा नजर आता है। जहाँ से ये प्रचंड चल रहे हैं और जो लोगों को अपने शिकार कर रहें हैं, उन लूकी-छिपी-सी गुफाओं की समझ भी नहीं है इन्हे। वैसे ही, जैसे मुझे नहीं थी। इन्हें मालूम ही नहीं की इनका रोबोट्स की तरह इस्तेमाल करने वाले खिलाड़ी, दूर बैठे भी कैसे इनकी ज़िंदगियों को रिमोट कंट्रोल कर रहे हैं। इन्हें लगता है, सबकुछ ये खुद ही कर रहे हैं।
हक़ीकत हाँ में भी है और ना में भी
हाँ -- क्यूँकि ऐसा होता प्रतीत हो रहा है, दिख रहा है
ना खुद नहीं कर रहे -- क्यूँकि इन्हें मालूम ही नहीं लैब कैलिब्रेशन्स (Lab Calibrations) कैसे होते हैं? और सामाजिक घड़ाई (Social Engineering) क्या है?
कौन और कैसे उन्हें बदल सकता है? तोड़, जोड़, मरोड़ सकता है? विचलित या भर्मित कर सकता है ? चालाकी से, धूर्तता से, दिमाग से इधर से उधर कर सकता है? वो, जो उन्हें चोबीसों घंटे अध्ययन या अवलोकन पर रखता है। उसे इंटेलीजेंसीआ भी कहते हैं। वैज्ञानिक, डॉक्टर, प्रोफेसर, इंटेलिजेंस शाखाएँ -- सिविल या फ़ौज़ और पत्रकार शायद यही सब करते हैं।
समाज अपने आप में एक बड़ी लैब है --सामाजिक घड़ाई (Social Engineering) अर्थात सामजिक तानेबाने को समाज के हित के लिए सँरचना, घड़ना। घड़ना, वैसे ही, जैसे कुम्हार घडता है। जुलाहा बुनता है। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे पक्षी बुनते हैं, रेशमी कीड़ा बुनता है, मधुमखी बुनती है। सुनार तापता है।
या सामाजिक घड़ाई (Social Engineering) -- राजनीतीक लाभ के लिए या बड़ी-बड़ी कंपनियों के फायदे के लिए, राजे-महाराजों के लिए करना। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे गीद्ध झपटता है, मकड़ी बुनती है, शेर, चीता घात लगाते हैं, शिकार करते हैं --छुपकर, स्फुर्ति से, कोई छद्धम युद्ध जैसे।
मोबाइल आज के वक़्त, सामाजिक घड़ाई (Social Engineering) का सबसे बड़ा हथियार है। और प्रोद्योकी (technology), किसी भी फॉर्म में उसका अभिन्न अंग। ज्यादातर ऐसे लोगों को आज भी पता नहीं है की दिनरात जिस मोबाइल को वो साथ लिए घुमते हैं, वो क्या-क्या करता है? और किन-किन के लिए करता है? कैसे ये लोगों की ज़िंदगियों को रिमोट कंट्रोल करता है? छद्धम युद्ध के सैनिकों की तरह कौन-कौन इसमें घुसे बैठे हैं?
मानव-संसाधन के लिए इन सबकी जानकारी, ज्यादा नहीं तो थोड़ी बहुत लाभकारी तो जरूर होगी।
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