समान्तर cases बनाना या घड़ना
साथ-साथ चलती उन लाइन्स की तरह हैं, जो साथ-साथ तो चल सकते हैं, मगर बिल्कुल एक जैसे नहीं हो सकते। हर केस, अलग है, वैसे-ही, जैसे हर इंसान, हर घर, मोहल्ला, शहर या देश।
दो या ज़्यादा नाम एक जैसे होने से भी, वो एक जैसे नहीं हैं। उनके माँ-बाप, उनके भाई-बहन, रिश्ते-नाते, घर का और बाहर का माहौल, पढ़ाई-लिखाई सब अलग है। उनके सपने, उमीदें, ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव, अनुभव और चुनौतियाँ, सब अलग हैं। मगर फिर भी राजनीतिक पार्टियाँ कोशिश करती हैं, उन्हें बिलकुल एक-जैसा दिखाने की, अपनी-अपनी घड़ाई के अनुसार। राजनीतिक ज़रूरतों के अनुसार, एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की।
सबसे बड़ी बात, जो आम आदमी की जरूरतें हैं, राजनीतिक पार्टियों की जरूरतें वो हैं ही नहीं। उनकी कुर्सियाँ, खासकर भारत जैसे देश में, आम आदमी की जरूरतों को पुरा करने से नहीं चलती। बल्कि शौषण करने से चलती हैं। इसीलिए आम आदमी यहाँ नेताओँ को साहब समझता है और सलाम ठोकता है। जिस दिन वो पलट जाएगा, उस दिन भारत भी गरीबों का अड्डा नहीं रहेगा। एक तरफ़ आसमान छूती इमारतें और दुसरी तरफ़ झुगी झोपड़ी नहीं दिखेंगीं।
इसे कुछ यूँ भी समझ सकते हैं :
एक परिवार में एक बच्चा है, लाड प्यार से पला बढ़ा। दूसरे में कई, मगर उसी हिस्से में पलते-बढ़ते हैं।
एक में, लड़का-लड़की बराबर हैं। दूसरे में, लड़की के पैदा होते ही माथे पे त्यौरियां पसर जाती हैं। हाय-तौबा मच जाती है। हर हाल में उन्हें लड़का चाहिए। चाहे, पैदा करने वाली के शरीर तक के हालात न हों।
एक परिवार पढ़ा-लिखा है, शहर रहता है। या विदेश। दूसरा कम पढ़ा-लिखा और गांव या झुगी झोपड़ी।
एक की सुबह पढ़ने-लिखने से शुरू होती है, दूसरे की झाड़ु-पोचे से।
एक घर में हर वक़्त शांति रहती है, दुसरे में चैचै-पैंपैं।
एक में राम-राम, नमस्ते, हाय-हेल्लो से सुबह-श्याम, दूसरे में गाली-गलौज।
उनके बच्चे बड़ों के साथ-साथ, बड़ों की सी राजनीतिक सतरंज खेलना सीखने हैं। और आपको ये भी न पता हो, ये खेल क्या होते हैं?
उनके बच्चे अलग-अलग भाषा, बातों-बातों में या रहन-सहन से ही सीख लें और आपके?
उनके बच्चे पैदा होते ही नए-नए गैजेट्स चलाना सीख जाएँ। नयी-नयी टेक्नोलॉजी के अभ्यस्त, रहन-सहन के तरीकों से ही हो जाएँ। और आपको उन सबका अंदाज़ा ही न हो, की वो बला क्या हैं?
और भी कितनी ही अलग-अलग या विपरीत परिस्थियाँ हो सकती हैं।
क्या ऐसी विपरीत परिस्थियों में, नाम एक जैसे होने से, ज़िंदगियाँ भी एक जैसी हो सकती हैं? ऐसे ही सामान्तर cases हैं। ज़्यादातर में परिस्तिथियाँ बहुत ही अलग-अलग हैं, मग़र फिर भी राजनीतिक पार्टियाँ, उन्हें एक-जैसा दिखाने या घड़ने की कोशिश करें, तो क्या होगा? और आम आदमी भी उसका हिस्सा बन जाए तो?
मतलब, आम-आदमी, अपनी ज़िंदगी या परिवार या मोहल्ले के लिए काम न करके, मुफ्त में राजनीतिक पार्टियों के लिए काम कर रहा है। मतलब, खुद ही अपना और अपने परिवार का शौषण करवा रहा है।
यही नहीं, आपस में भी बँट गया है या बाँट दिया गया है। कहीं-कहीं तो एक दूसरे के खिलाफ ही खड़ा हो गया है। तो क्या होगा?
आप शौक पालें अमीरों के, और काम करें गरीबी लाने वाले? शायद ऐसा ही कुछ?
Manifestations and Manipulations
(चालकियाँ, षड्यंत्र, बदलना, छीनना, झपटना, आँख में धुल झोंकना और भी बहुत कुछ)
या यूँ कहो, आम-आदमी को रोबोट्स की तरह रिमोट कंट्रोल करना -- आगे की किसी पोस्ट्स में।
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