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Media and education technology by profession. Writing is drug. Minute observer, believe in instinct, curious, science communicator, agnostic, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Wednesday, June 7, 2023

PPF -- Transfer-Adjustment?

आप बैंक में पैसा क्यों जमा करवाते हैं? ताकी जरुरत पड़ने पे आपके काम आ सके। घर पे सुरक्षित नहीं होगा। बैंक में सुरक्षित होता है? उसपे थोड़ा बहुत ब्याज भी मिलता है। 
या कोई और वजह भी हो सकती है? 

मान लो, आपके दो बैंको में अकाउंट हैं। आप नौकरी करते हैं और एक बैंक की शाखा (SBI)आपकी कंपनी या इंस्टिट्यूट में भी है। उसी में आपकी तन्खा भी आती है। आपका अपने इंस्टिट्यूट या कंपनी से कोई झगड़ा चल रहा है। आपने नौकरी छोड़ भी दी और नहीं भी। अब इंस्टिट्यूट या कंपनी ने आपकी 10 -15 सालों की जो बचत है उसे रोक दिया। जब तक आप वहाँ से उनकी TERMS और CONDITIONS के अनुसार नहीं निकलेंगे, तक तक आपको हर तरह से बिठा दिया। न आप अपने मुताबिक कहीं कुछ कर सकते। न भारत छोड़ कहीं बाहर जा सकते। उसपे झूठे केसों में जेल में पटक देंगे, के डरावे अलग से। 
  
एक होता है PPF, जिसमें इंस्टिट्यूट या कंपनी का कोई लेना-देना नहीं होता। क्युंकि वो आपका अपना अलग से बचत खाता है। आप उसे तो निकाल ही सकते हैं ना? SBI वाले बताते हैं की ऐसा नहीं हो सकता। थोड़ा-सा पैसा है और वो भी फलाँ-फलाँ नाम पे हज़म हो जाएगा। फिर कहीं से सलाह मिलती है की दूसरे बैंक में ट्रांसफर करवा लो, तब तो मिल सकता है। ये भी सही है और आपने PPF ट्रांसफर के लिए अप्लाई कर दिया। SBI वाले इधर-उधर के नखरे और धक्के खिलाते हैं। जो काम मुश्किल से आध-पौने घंटे का था उसे 3-4 दिन में करते हैं। पहले बोलते हैं आप चैक ले जाना और दूसरे बैंक में जमा करवा देना। और हो गया काम। मगर फिर कुछ फ़ोन आते हैं, और विकास वाली 25-नंबरी नौटंकी चलती है। फिर आपको बताया जाता है की चैक आपको नहीं दे सकते और किसी प्रदीप को बुलाके बोलते हैं, की ये दे आएगा। आप 3.00 PM पे ICICI चले जाना और आपका काम हो जायेगा। 6th-मई को अगर आप News-24 देखेंगे तो शायद करनाल स्पेशल कोई न्यूज़ मिल जाए। मैडम बाथरूम में छुप गयी और काम नहीं कर रही। 

9th मई से शुरू होते हैं ICICI के धक्के अपना ही पैसा निकलवाने के लिए। दो दिन, 4 दिन, 10-दिन, 20-दिन। आखिर थोड़ा-सा पैसा, अपने ही अकाउंट से निकलवाने के लिए और कितने दिन? 
Are not we living in the age of Online ease of doing work?  इत्ते से काम के लिए आखिर कितने धक्के और बहाने?

एक महीने बाद, मतलब कल 6th जून, आप फिर से जाते हैं। 2-3 घंटे की बहस के बाद आपको बोला जाता है की Sunday तक पैसे आपके saving account में आ जायेंगे। आप पूछते हैं उस रविवार की तिथि क्या है? और बताया जाता है 9!  कितनी तारीख़ है आने वाले रविवार की? खैर, आप काफी बहस के बाद वापस घर आ जाते हैं।   
 
आज फिर से फ़ोन आता है की मैडम आपके SBI ने जो पैसे काटे हैं, आपने वो नहीं बताया। जबकि मैं SBI PPF की ऑनलाइन statement निकाल कर दे चुकी !

उसपे मोहतरमा बोलती हैं स्टेटमेंट तो SBI ने चैक लगाके भेजी हुयी है। 
तो आप मुझे क्यों धक्के खिला रहे हैं?
हमारी back end team कह रही है की आप इस साल का withdrawal कर चुके! दुबारा नहीं हो सकता! 
Interesting?  
   
आपने PPF ट्रांसफर ही इसलिए किया है की SBI में संभव ही नहीं था। पैसा हजम हो जाता। अगर वहां पैसा निकाल देते तो PPF Transfer की नौबत ही न आती। 
कितना पैसा SBI ने काट दिया, मुझे बताये या पूछे बैगर? 24000 से थोड़ा उप्पर। क्यों? उसपे लिखा है transfer-adjustment! 

मैंने SBI में कोई फॉर्म नहीं भरा withdrawal के लिए तो withdrawal संभव है क्या? फिर ये क्या है? SBI वालों ने बताया की अबकी बार का हमारा interest हमने वापस रख लिया। Interest आपको आगे वाला बैंक देगा। आगे वाला बैंक तो पैसे ही नहीं दे रहा। Interest को मारो गोली। 

शुरू में ICICI बैंक वालों ने बोला एक महीने बाद ले लेना, नहीं तो 590 रूपए कट जाएंगे। मैंने कहा कटने दो, मुझे अभी चाहिएँ। मगर नहीं। अब तो एक महीना भी हुआ। अब क्या?

आज मैडम बोलती हैं आपका SBI में Closure नहीं हुआ है। घररररर 
अब इन्हें कौन बताए की मैं पहले ही बहुत फाइल्स के closure झेल चुकी। तुम बक्स दो मुझे कहीं तो!

लो देखो, आपके अपने समाज का आम आदमी क्या-क्या झेलता है, इस crypts के जुआ बाजार में : 

या कॉपी पेस्ट https://www.youtube.com/watch?v=MFjmbGyF6zk 

व्यस्त कहाँ हैं? (सफल-असफल?) 1

आप व्यस्त कहाँ है? यही सब आपकी सफलता या असफलता निर्धारित करता है। हालाँकि सफलता और असफलता के अलग-अलग लोगों और अलग-अलग समाज के लिए, अलग-अलग पैमाने हो सकते हैं। मगर कुछ तो सब जगह एक समान होगा। वो है आम जरुरत के संसांधन, शांती और आगे बढ़ने के मौके।  

आओ दो अलग-अलग तरह के माहौलों पे गौर फरमाते हैं। शायद दोनों ही आपके इधर या उधर हों। आपके आसपास या शायद थोड़ा दूर हों। आप उनमें से किधर का हिस्सा हैं?  

ये सब उनके लिए शायद, जो कहते हैं की हमने तो बहुत किया अपने बच्चों के लिए। मगर फिर भी नालायक निकले। खासकर, गाँवों में ऐसे-ऐसे नालायकों की फौज की फौज होती हैं। जिनके बच्चे सफल होते हैं और जिनके नहीं होते, जिनके घर अक्सर शांत रहते हैं और जिनके अक्सर लड़ाई-झगड़े के घढ़, उनकी अगर तुलना करोगे तो काफी कुछ समझ आएगा। ऐसे घर भी, जो किसी वक़्त काफी शांत रहे हैं, और किसी वक़्त झगडे और लड़ाई के घढ़। मतलब, एक ही घर के भी,अलग-अलग तरह के वक़्त हो सकते हैं। अपने ही घरों की उन अलग-अलग परिस्थितियों को जानने-समझने की कोशिश करेंगे, तो बहुत कुछ समझ आने लगेगा, की ऐसा क्यों?  

अगर ज्यादातर घरों को दो तरह के घरों में बाँट दें, शांत और अशांत। तो फर्क शायद ये देखने को मिलेगा की शांत घर के लोग आपस में वक़्त ज्यादा बिताते हैं। बजाय की बाहर वालों के साथ। एक साथ खाते-पीते हैं। एक-दूसरे के भले-बुरे में साथ खड़े होते हैं। अगर वो दूर-दूर रह रहे हों तो भी आपस में बातचीत तकरीबन रोज होती मिलेगी या कोशिश करते होंगे, जितना ज्यादा एक-दूसरे के हालचाल जान सकें। या दूर बैठकर भी एक दूसरे के काम आ सकें। अशांत घरों में सबके अपने-अपने, अलग-अलग, ठिकाने मिलेंगे। एक-दूसरे के लिए वक़्त कम ही होगा। कोई इनके यहाँ, तो कोई उनके वहाँ मिलेगा। अब इनके और उनके यहाँ का माहौल ही इनकी ज़िंदगी की दिशा और दशा निर्धारित करेंगे। 

अगर माहौल आगे बढ़ने के लिए उपयुक्त है, तो वो आगे बढ़ते मिलेंगे। अगर माहौल ही पिछड़ा और पीछे धकेलने वाला है, तो वो पिछड़ते और पीछे रहते मिलेंगे। मतलब, आप जहाँ-कहीं भी रहें, वहाँ का माहौल आपको और आपकी ज़िंदगी को बहुत प्रभावित करता है। एक माहौल आपको हर वक़्त कुछ नया और कुछ अच्छा सिखाता मिलेगा। वो भी बिना कोई ज्यादा मेहनत किए। तो एक माहौल, आपकी मेहनत पे भी पानी फेरता मिलेगा। थोड़ा बहुत सीखने के लिए भी, बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। एक माहौल आपको अपने आप शांत बनाता मिलेगा। और एक माहौल तू-तड़ाक, गाली-गलौच, मार-पीट की तरफ हाँकता। एक माहौल, आपको कुछ नया बनाने या सजाने-सवांरने और साफ़-सफाई की तरफ लेकर जाएगा। तो एक माहौल बने हुए को भी तोड़-फोड़ की तरफ।सुन्दर, साफ-सुथरे को भद्दा बनाने में व्यस्त मिलेगा। एक माहौल, आपको उड़ना सिखायगा, आपके सपनों को पंख देता मिलेगा। तो दूसरा जकड़ना, बाँधना, जेल जैसे। कुछ तो ऐसे-ऐसे धन्ना सेठ भी मिल जाएंगे, जो शायद अपने दामादों के बारे (कोई और रिस्ता भी हो सकता है) कहते मिलें, "गले मैं मोटी चैन यूँ अ ना डाल रखी।" पैसे का इतना गरूर? आग लगा दो, ऐसे भीख (gift?) के सोने को। ऐसे लोग शायद फिर कहीं न कहीं, अपने ही बच्चों की खुशियों का भी गला घोटते मिलें। ऐसी-ऐसी, और जाने कैसी-कैसी, शानो-शौकत के चक्कर में? अमीर-गरीब या शायद ऊँच-नीच के भेदभाव में? या शायद वक़्त, उन्हें भी विनम्र होना सीखा देता है? वक़्त हमेशा एक जैसा कहाँ रहता है? इसलिए, शायद सही रहता है, दोनों तरह के वक़्तों में थोड़ा स्थिर रहना। अपने अच्छे वक़्त में किसी और को नीचा दिखाने की कोशिश ना करें और बुरे में, किसी के ज्यादा दबाव में ना रहें।    

आप अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में कहाँ व्यस्त हैं, उससे आसानी से पता किया जा सकता है की आप आगे बढ़ने में व्यस्त हैं या पीछे। आओ अलग-अलग माहौलों को अपनी दिनचर्या से जानते-समझते हैं। 

आपको किसी ने बोला यहाँ पत्थर या रोड़ा रखना है? और आपने रख दिया? आपको किसी ने बोला, यहाँ खूंठा गाड़ना है? और आपने गाड़ दिया? आपको किसी ने बोला, यहाँ गोबर मचाना है? आपने मचा दिया? आपको किसी ने बोला, इस गाड़ी का पेंट उतारना है? पहिया बदलना है? पहिया पैंचर करना है? सीट फाड़नी है? इसका शीशा फोड़ना है? इसका साइड वाला शीशा उखाड़ना है या खराब करना है? कोई पेंच निकालना है? पेट्रोल निकालना है? इसकी बैटरी बदलनी है? इसके ब्रेक फेल करने हैं? इसको रगड़ लगानी है? या इसको ठोकना है? वो ऐसा इंसानों के साथ करने को भी बोल सकते हैं। और आपने कर दिया? आपको किसी ने बोला, यहाँ से ये बर्तन ले जाना है? कोई और वस्तु भी हो सकती है। ये डिब्बा ले जाना है और किसी और को देना है? इस कुकर की सीटी बदलनी है या खराब करनी है? इसका ढक्कन उठाना है और कहीं और छुपा देना है? ये बल्ब फोड़ने हैं? ये चकला फोड़ना है? उनकी छत पे टायर फेँकना है ? बोतल फेंकनी है? बीड़ी, सिगरेट फेंकनी है या उनका डिब्बा वहाँ-वहाँ रखना है? वहाँ माचिस रखके आनी है? उनके पानी में गोबर-कीचड़ या कुछ और डालना है? उनकी टंकी वाली टैप खोलके आनी है? यहाँ, यहाँ और यहाँ डंडा रखना है? या पिस्तौल जैसा कुछ या स्टेनगन जैसा कुछ रखना है? यहाँ नारियल सुखा के रखने हैं? यहाँ केले के छिलके फेंकने हैं? यहाँ पॉलिथीन गिरा के आने हैं? यहाँ काला पॉलिथीन रखना है? यहाँ सोडा की या शराब की खाली बोतल? यहाँ खराब हुए पैड या नैपकीन फेंकने हैं? इस काले तार की घुंडी का 9 या 4, 5, 6, 7 या कुछ और बनाना है? इन तारों का जीरो? इन तारों का V या Y, X, Z या K। और भी बहुत शब्द हैं, बनाने या घुमाने के लिए। इन तारों में बोतल लपेट दो? इन तारों को गली से नहीं लेके जाना। बल्की इस घर की खूंठी से गाँठ बांधके, उनकी छत से होके, वहाँ उसपे इतने पथ्थर रखके और उनके घर के आगे से लेके जाना है? चाहे गली से छोटा रस्ता पड़ता हो। यहाँ, यहाँ, सफाई नहीं करनी? यहाँ, यहाँ से कूड़ा नहीं उठाना? इसपे या उसपे ये, ये कमेण्ट्री करके जाना है? उसको ये, ये, भला-बुरा कहना या संकेत करना है या दिखाना है? और भी कितना कुछ ऐसा ही, आपके अपने घर में या आसपास में तो नहीं हो रहा? 

तो सावधान। सामने वाले का तो पता नहीं, उससे क्या नुकसान होना है और क्या नहीं। आप और आपका आसपास जरूर तोड़फोड़ या उलटी-सीधी चीजों में व्यस्त है। वो जितना ज्यादा इस सबमें व्यस्त है, उतना ही ज्यादा, उन्हें पीछे धकेला जा रहा है। या गलत और बुरे प्रभावों वाले सामान्तर केसों का हिस्सा बनाया जा रहा है। आपके अपने यहाँ पिछड़ा और मारपिट का और आलतू-फालतू केसों का माहौल बनाया जा रहा है। और आपको खबर भी नहीं? ऐसे कैसे? जो भी आपसे करवाया जा रहा है, उसका मतलब है, "दिखाना है, बताना नहीं". मतलब, वो आपकी रैली पीट रहे हैं और आपसे खुद से पिटवा रहे हैं। उस सबको, वो इधर-उधर दिखा भी रहे हैं और बता भी रहे हैं। मतलब उसके मजे भी ले रहे हैं।  

समझ में आया कुछ? 

व्यस्त कहाँ हैं? कुछ और माहौल जानने की कोशिश करते हैं, आगे कुछ और पोस्ट में। 

व्यस्त कहाँ हैं?

बनाने में व्यस्त हो 

या गिराने में, 

आप और आपका आसपास?

हो चाहे, जाने में या अन्जाने में 

ज़िंदगी उसी दिशा में चलेगी। .


सिखने या सिखाने में व्यस्त हो 

कुछ अच्छा या कुछ बुरा ? 

अपनों के साथ मिलके काम करने 

या करवाने में व्यस्त हो ?

या किसी और के भरोसे छोड़ने में?


कौन, कहाँ और किसके साथ वक़्त बिताता है?

कौन, कहाँ और किसके साथ काम है?

किसके साथ खेलता या खाता-पीता है? 

किससे ज्यादातर बात करता है? 

अगर वहाँ ज्यादा विरोधाभाष नहीं है 

तो ज्यादातर, वहीं का हो रहता है। 


खून तुम्हारा है, से फर्क क्या पड़ता है? 

जब कोई जुड़ाव इतना कम है 

(या शायद कम करवाया जा रहा है) Enforced visibly or invisibly 

की वो इंसान, अपनी ज्यादातर जरूरतें 

कहीं और से पूरी करता है। 

ज़िंदगी की जरूरतें, जहाँ-कहीं से पूरी करता है 

उसकी ज़िंदगी भी, वहीं जैसी-सी ही हो रहती है 

और लगाव भी वहीं रहता है। 

Politics of Persuasion ?

Politics of Persuasion मतलब किसी को ऐसे बोलो, दिखाओ या सुनाओ, की वो जहर को अमृत समझ खा जाएँ और अमृत को जहर समझ ठुकरा दें। ये तरीके बहुत से विषयों के मिश्रित ज्ञान की देन हैं। जिन्हे राजनीति ही नहीं, बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ भी प्रयोग करती हैं, अपना सामान बेचने के लिए। ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी तरफ लुभाने के लिए। अपनी साख बनाये रखने के लिए। 

PR (Public Relations), Communications, मीडिया : प्रचार-प्रसार के माध्यम, इन सबका अहम् हिस्सा हैं। आम आदमी आज आपस में बात करने की बजाय, इन सब पर ज्यादा वक़्त बिताता है। तो क्या होगा? वही जो हो रहा है।

Google बाबा के अनुसार

Persuasion: वह अंतर्वैयक्तिक या सामाजिक प्रक्रिया होती है जिसमें एक व्यक्ति, समूह या संगठन किसी अन्य व्यक्ति, प्राणी, समूह या संगठन को तर्क, बल या प्रभावित करने के अन्य मार्गों द्वारा उनके दृष्टिकोण, विचारों या व्यवहारों को किसी विशेष दिशा में ले जाने का प्रयत्न करता है।

बहुत से विषयों का मिश्रित ज्ञान इसके लिए प्रयोग होता है। जिनमें विज्ञान, कला, सामाजिक विज्ञान सब है। इन विषयों का मिश्रित संसार टेक्नोलॉजी के विकास के साथ-साथ, आज के इंसान के तकरीबन हर वाद-विवाद से जुड़ा है। दिमाग से जुड़ा हर विषय उसमें अहम् भुमिका निभाता है। चाहे फिर वो जैव विज्ञान हो, रसायन विज्ञान, मनोविज्ञान या कोई और। अलग-अलग तरह के विषयों की खिचड़ी, अपने आप में अलग तरह का विषय बना देती हैं। उस सबका अध्ययन, नए-नए आयाम, अवसर और अवरोधों का स्त्रोत होता है। दिमाग भी ऐसे ही है। अलग- अलग वातावरण में अलग-अलग तरह से काम करता है। वो दिमाग है तो सबके पास, मगर उसका उपयोग कहाँ, कैसे, कितना और किस दिशा में होता है, इसपे निर्भर करता है, इंसान का पूरा अस्तित्व। समाज की दशा और दिशा। अगर उस दिमाग को आप प्रयोग करें तब तो सही। मगर आपकी बजाय अगर वो किसी और के अधीन काम करने लगे तो? सम्भव है क्या ये?  

आप किसी के बारे में क्या सोचते हैं? ये इस पर निर्भर करता है की आपको उसके बारे में क्या-क्या पता है? और इस पर भी की किसी विषय पर आपकी सोच क्या है? अब एक ही विषय पर एक देश और दूसरे देश के आदमी की सोच अलग हो सकती है। और एक ही घर में बच्चे और बड़े की सोच भी अलग हो सकती है। 

जैसे Enjoy एक बच्चे ने बोला तो उसके लिए इसका मतलब होगा, खेलना, थोड़ी-सी घुमाई अपनी पसंदीदा जगहों पे, जैसे वाटर पार्क और हो सकता है कोई कंप्यूटर गेम, कोई serial, cartoon सीरीज, शायद थोड़ी बहुत खरीददारी, थोड़ा अपनी पसंद का खाना। 

बड़ों के लिए भी कुछ-कुछ ऐसा ही होगा। अपनी-अपनी पसंद और उम्र के हिसाब से। 

किसी के लिए उसका मतलब 3-IDIOT के Joy सुसाइड के खिड़की सीन पे टिक सकता है क्या? बताया ना निर्भर करता है, की उस बन्दे की जानकारी किसी विषय वस्तु की कितनी है, और वो उसे कैसे समझता है?   

कुछ बातें या चीज़ें हो सकता है आपको बताई, दिखाई या समझायी ऐसे जा रही हों, जो आपके लिए सही न हो। जिन्हे आप या तो बहुत पीछे छोड़ चुके या वो सब इतना और इस तरह से हो चुका की महत्व ही खो चुका हो। इन्हीं बातों और तरीकों में क्रुरता भरी होती है। राजनीतिक पार्टियों की ये क्रुरता किसी भी भले-बुरे वक़्त पे सामने आ सकती है। वो मौत पे स्टेनगन दिखाने पहुँच सकते हैं, और शादी पे, मौत के सौदागर बनकर। हिन्दुओं को मुसमानों की तरह के तरीके जोड़-तोड़ कर फूँक सकते हैं और मुसलमानों को हिन्दुओं की तरह। उनके दिमाग की क्रुरता अक्सर उनके पहनावे, आसपास के संसाधनों, कामों को करने के तरीकों में झलकती है। ऐसे सामाजिक ताने-बाने अक्सर औरतों और कमजोर समझे जाने वाले वर्ग को बल के तान धकेलते हैं। क्युंकि दिमाग ऐसे लोगों के काम कम ही आते हैं। उनके हाथो में डंडे जैसे या इससे भी खूँखार साधन मिलते हैं। ऐसे लोग औरतों के नाम पर या कमजोर कहे जाने वाले तबकों के नाम पे पद पाते हैं। और बनने के बाद उन पदों को अपने ही नाम लिख लेते हैं। सोचो, ऐसी सोच औरतों को क्या समझती होगी और उनसे कैसे पेश आती होगी? फिर चाहे अपने ही घर या आसपास की औरतें क्यों न हों?    

राजनीती अक्सर ऐसे केसों में काले धागे फेंकती है और कहती है चमार-चूड़े (Lower Cast) आ गए। इस तरह के धागे और जातियाँ और धर्म, राजनीति की घिनौनी देन ज्यादा हैं। इसमें भी अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के, अपने-अपने उदेश्य भुनाने के अलग-अलग तरीके हो सकते हैं। राजनीति के लिए कुछ भी अछूत नहीं है। 

वो भाइ-बहन, बाप-बेटी, दादा-पोती, माँ-बेटा जैसे रिश्तों कों तार-तार करने की कोशिश कर सकते हैं। कौन हैं ये लोग? पहले तो इन कुंठित मानसिकताओं को पहचानों। और जितना हो सके, अगर दूर न हो सको तो कम से कम सावधान जरूर रहो। कोड्स की भाषा में BC, MC, CC, SF, MF और भी पता नहीं क्या-क्या होता है। सामने वाले के प्रयोग और नज़रिये पे है। अब अगर लोगबाग ऐसे-ऐसे नाटक लिखेंगे या तोड़-मरोड़ कर समाज में पेश करने की कोशिश करेंगे तो उस समाज में या ऐसे तबके में औरतों या इस कमजोर कहे जाने वाले वर्ग की स्थिति क्या होगी? शायद आप कहें शिक्षा उसका समाधान हो सकती है? क्या पता ऐसे लोग शिक्षा में भी घुसे हों? और उनके लिए वो शिक्षा की बजाय धंधा मात्र हो? उसपे बाहर छवि ये बना ली हो की हम तो लोगों के उत्थान के लिए, भले के लिए काम करते हैं?     

ऐसी सोच मुर्दाघरों से मुर्दे निकाल बेच सकते हैं और ज़िंदा लोगों को मुर्दा घरों में सजा सकते हैं। वे माता कह के ले सकते हैं और रातों जगराते करवा सकते हैं। काम ख़त्म होने पे उन्ही सजी-धजी मुर्तियों का विषर्जन कर सकते हैं। मतलब, वोटों के लिए हर तरह का गंद फैला सकते हैं। आम आदमी की ऐसे लोगों के बीच जीत हो ही नहीं सकती। क्यूंकि, आम-आदमी उतना नहीं गिर सकता। वो सफ़ेद धागों को ब्रामणों या जाटों या राजपूतों या किसी भी ऊँची जाती का धागा गा सकते हैं। ऊँची जाती कितनी ऊँची? क्या पैमाने हैं उस उंचाईं के? नीची जाती कितनी नीची? कितनी गहरी खुदाई है उस जाती की? अगर वो आपको इन सब जालों में उलझा रहे हैं, तो बचो उनसे। उनका तो धंधा है ये। हाँ! पर गन्दा है ये।  

आप कहाँ व्यस्त हैं?

आप जहाँ व्यस्त हैं, क्या वहाँ खुद व्यस्त हैं?

या किन्हीं औरों द्वारा व्यस्त किए गए हैं?

भला कोई और आपको कैसे व्यस्त कर सकता है? 

नहीं? 

आप सोचिए कैसे?

जानते हैं अगली पोस्ट से --     

Monday, June 5, 2023

सामान्तर केसों की घड़ाई (ताबीज़-कबीज?)

(ताबीज़-कबीज?) 

FB के होम पेज पे एक विज्ञापन आया -- काला धागा पहने और पैसा ही पैसा पाएँ। पहली बात तो मैं ऐसे चक्रों में पड़ती नहीं। दूसरा, जहाँ कहीं ऐसी-ऐसी लॉटरी का जिक्र हो वो spam के इलावा किसी और जगह के लायक नहीं होते। Online Security में थोड़ा बहुत पढ़ा होगा। 

ऐसा ही कुछ ताबीजों की कहानियाँ हैं शायद। जो दिखाई गयी शुभ हैं, मगर अशुभ हैं। अच्छा, पीछे किन-किन ने काले धागे बाँधे? और कहाँ-कहाँ? हाथ में? पैर में? गले में? या कहीं और? कितना वक़्त हो गया बाँधे हुए? किसने दिया या बताया वो सब बाँधने के लिए? और क्या बोलके बँधवाया गया? वैसा कुछ हुआ क्या? या उसके विपरीत? और फिर भी बाँधे हुए हैं? किसी शुभ कहके बँधवाने वाले के सिर मत होना। उन बेचारों या बेचारियों को भी उतना ही पता होगा, जितना आपको। सबसे बड़ी बात ये की ये पहली बार नहीं हो रहा। ऐसा आपके बड़ों के साथ हो चुका है। इसलिए कभी-कभी बड़ों के अनुभवों को जानना भी सही होता है। शायद भार नहीं होते वो आप पे, रक्षा कवच होते हैं।   

किसी की कहीं कोई समस्या चल रही थी। नौबत, गाइड बदलने तक की आ गयी। समाधान भी पास ही मिल गया। ज्यादातर दोस्त जिस लैब में थी उन्होंने बोला हमारे सर के पास सीट है और शायद वो तुम्हे ले भी लें। क्यूंकि तुम्हारा काम वो है जो उन्हें शुरू करना है। मेरे लिए भी सही था और वहाँ से हाँ भी हो गयी। सब सही जाता लग रहा था। मगर कुछ दिन बाद एक दोस्त ने बोला, शायद तुम इस लैब में नहीं रह पाओगे। मैंने कहा, क्यों, ऐसा क्यों कह रही हो? उसने बताया की मैम किसी के पास भविष्य पूछने या समस्याओं के समाधान पुछने जाते हैं। और उस ब्राह्मण ने बोला है की तुम्हारी लैब में कोई नया बंदा आया है और वो तुम्हारे लिए सही नहीं है। अब तुम्हारे सिवाय तो कोई आया नहीं। और मुझे यक़ीन नहीं हुआ की ऐसा भी होता है। इतने पढ़े-लिखे लोग भी समस्याओं के समाधान या भविष्य पूछने ऐसे किसी ब्राह्मण-पंडों के पास जाते होंगे? और किसी के कहने भर से वो सब कर भी देंगे? मगर, वैसा हुआ। अब क्या सच था या क्या झूठ, मुझे आज तक समझ नहीं आया। 

हाँ! इतने सालों बाद, खासकर पिछले कुछ सालों के अध्ययन के बाद, ये जरूर समझ आया की जब परेशान होते हैं या कुछ ज्यादा की चाहत में, तभी ऐसे लोगों के पास जाते हैं। और उनका कहा हुआ कर भी देते हैं। बिना सोचे समझे, की उनको हमसे ज्यादा पता कैसे हो सकता है। जब इतने पढ़े-लिखे लोग ऐसा कर सकते हैं तो आम आदमी के बारे में क्या बोलें?   

जैसे 2016 में मेरे कैंपस के घर 16 में पीछे आम के पेड़ पे, किसी द्वारा पीछे से कच्चा सूत का धागा लपेटना, मेरे लिए अनपढ़ गँवारों की निशानी था। मगर काफी वक़्त बाद पता चला की वो तो किसी जुर्म की कहानी था। और ऐसे-ऐसे तरीके ज्यादातर जुर्म दिखाने के लिए, Show, Don't Tell की कहानियाँ भी गाते हैं। घुमा फिराकर या चढ़ा बढ़ा कर भी दिखाते  हैं। और होने के सालों बाद भी, जब आप आसपास भी नहीं होते तो भी तरो-ताज़ा रखने की कोशिशें भी होते हैं। चाहे वो शख्स ज़िंदगी के कितने ही और पड़ाव पार क्यों न कर चुके हों। 

शायद इन सबका मतलब ही आम इंसान को इस साइको (Psychology) के जाल में उलझाकर रखना होता है। और राजनीतिक पार्टियों को क्या चाहिए? आम आदमी खामखाँ के जालों में उलझेगा नहीं तो उनसे काम की बातों पे आओ, बकवास पे नहीं, बोलने नहीं लगेगा?

दिमागी खेल (Mind Programming)

मानो आपको कोरोना के शुरू होते ही किसी ने बोला, ये कहना शुरू करदो की मुझे भी कोरोना हो गया है ! 

आपको पता है की आपको कुछ नहीं हो रखा था। मगर आपको किसी ने बोला और आपने कहना शुरू कर दिया। आपको नहीं मालूम उसका अन्जाम। शायद किसी अपने या आसपास वाले ने आपके भले के लिए ही बोला होगा। ऐसा ही सोचा आपने ? इसके आगे आपको कुछ नहीं मालूम, क्या होना था? होना क्या था? 

शायद इस घर या आसपड़ोस में जो कुछ बचा था वो सब खत्म! किसको फर्क पड़ता? इस राजनीतिक पार्टी वालों को? या उस पार्टी वालों को? या कहने मात्र वाले उस देश को, जो कुर्बानी माँग रहा था? वैसे उसके परिणाम आपको बताए किसी दूसरी पार्टी वालों ने भी नहीं। क्यों? इस राजनीति में कौन अपना? राजा को बोलो ना की कुर्बानी दे और बार-बार बोलो। बोल के देखो तो की वो देता है या नहीं। हमेशा ये राजे महाराजे आम आदमी से ही कुर्बानी क्यों माँगते हैं? 

अब तक आपका ये घर, पड़ोस, आसपास ऐसी-ऐसी कितनी कुर्बानियाँ दे चुका? गिनती है? चलो न पता हो तो आईना दिखाऊँ:

कितने बच्चे माँ-बाप दोनों के प्यार दुलार में पले हैं या पलेंगे? कितने दादा-दादी या नाना-नानी के? कितने बुआ-फुफा, चाचा-चाची, ताऊ-ताई के? अब ऐसा तो कहीं भी नहीं होता की सब सही हो। ये भी सही है। सब इक्क्ठ्ठे या मिलजुलकर कहाँ रहते हैं? तो फर्क कहाँ पड़ता है? मैंने तो सिर्फ कोई गिनती करने को बोला है। विवाहित या अविवाहित कितने अकेले हैं, या कितने सही सलामत दोनों? 

सिर्फ ये सोचने को बोला है, की ये फ़ैलाने को किसने बोला की कोरोना हो गया, कोरोना हो गया? न हुई बात को मान लेना, दिमाग में कुछ भी घुसाने का पहला तरीका होता है। एक बार न माने तो बार-बार बोलो। वो कहते हैं ना की एक झूठ को बार-बार बोलो, तो वो सच लगने लगता है। लगने लगा तो फिर बार-बार बोलो और वो सच हो जाएगा।  इसीलिए तो कहते हैं, की जो सोचो वो सोच समझ के सोचो। गलत सोचोगे तो गलत ही होने लग जाएगा। 

अगर वो उस वक़्त बंद ना करवाया जाता तो सोचो इन घरों या आसपड़ोस का क्या होता? कौन-कौन आज नहीं होता ? यहाँ भगवान ने बचाया जैसा कुछ नहीं है। अगर भगवान को मानते भी हो, तो उसने तुम्हे दिमाग थोड़ा बहुत इस्तेमाल के लिए तो दिया ही होगा? ये सिर्फ दिमाग को थोड़ा-सा इधर, या थोड़ा-सा उधर चलाने जैसा है। 

ये वैसे ही है, जैसे किसी भेझे से पैदल को साथ वाली ड्राइवर सीट पे बैठा लो और वो बैठते ही शुरू हो जाए। इसमें  ठोक दे। उसमें ठोक दे। क्या हो अगर ऐसे इंसान को उतारा ना जाए? कहीं ना कहीं तो गाडी ठुकवा ही देगा ना? और लगेगा ऐसे, शायद आपने खुद ही किया हो। 

या शायद कुछ-कुछ ऐसे, की साँड़ मारने के लिए आपकी तरफ आ रहा हो और आप हों निहथे। उसपे इधर-उधर से आवाजें आने लगे -- दम है तो लड़ के दिखा। मार दे इसे। कर कल्याण। कल्याण तो होगा, मगर सोचो किसका ? थोड़ा-सा दिमाग वाला भी बचके निकलेगा। मगर भेझे से पैदल ? -- कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे मुझे कोरोना हो गया। मुझे भी। मुझे भी। 

Sunday, June 4, 2023

सामान्तर घड़ाई कैसे होती हैं ?

सामान्तर घड़ाई कैसे होती हैं?

मानो किसी ने कोई नाटक लिखा। उसमें उन्होंने बहुत ही घिनौना लिखा। जहाँ बाप बेटी को खा जाता है। बहन भाई को। बेटा माँ को। जैसी सोच, वैसा ही स्क्रिप्ट तैयार। इसमें कुछ और भी हो सकता है। बेटी बाप को, बहन भाई को या माँ बेटे को। और भी कितने ही तरह के किरदार हो सकते हैं। 

माँ, बाप, बहन, भाई, बेटा, बेटी, बुआ, चाचा, ताऊ, मामा, फूफी आदि। सब आराम से रहते हैं। एक दूसरे को जरुरत पड़ने पे काम आते हैं और एक दूसरे का भला चाहते हैं। नाटक तो ऐसे भी होते है। और उन्हें लिखने वाले भी। अब ये देखने वाले पे भी है की वो क्या देखता है, क्या सुनता है और क्या समझता है। आप कहेंगे सब सोच पे निर्भर करता है। 

ये सोच कहाँ से आती है? आपकी अपनी है ? आपको जहाँ आप पैदा हुए हैं उस माहौल से मिली है? या आप उस माहौल से आगे निकल और भी संसार देख चुके हैं, उस सबके निष्कर्ष के बाद निकली है? या आप अपने पैदाइशी माहौल से बाहर कहीं निकले ही नहीं और जिनके आसपास रहते हैं उस सबकी मिलीजुली देन है?

या इसके आगे भी कुछ है? एक माहौल में आप शालीन, सभ्य व्यवहार करते हैं और आगे बढ़ने की बातें और काम। दूसरे में असभ्य, गाली-गलौच, मारपिट। एक माहौल में आप आपस में मिल बैठकर एक दूसरे को सुनते है, समझते हैं। साथ खाते-पीते हैं। दूसरे में, दूसरों के या शायद अपनों की चर्चा किसी और से करते हैं और सुनते हैं। मतलब एक माहौल में लोग मिलजुल कर रहते हैं। दूसरे में, शायद एक दूसरे के ही खिलाफ जहर उगलते हैं। 

आईये, फिर से नाटकों पे आते हैं। और उनके रचे सामान्तर संसार और उन ज़िंदगियों पर। एक जगह आप घिनौना लिखने वालोँ के किरदारों के पास रहते हैं। लिखने वालों के नहीं, बल्की नाटक के रचने वाले किरदारों के पास। वो जानते ही नहीं लिखने वाले कौन हैं? ये भी नहीं जानते, वो दूर हैं या पास हैं। क्या करते हैं और क्या चाहते हैं। मानो, लिखने वाले इस पार्टी या उस पार्टी के हैं। तो क्या चाहिए उन्हें? सत्ता। कैसे भी। मगर समाज में ऐसे सामांतर केस घड़ने से क्या होगा? जैसा समाज वो चाहते हैं, वो? या शायद उन्हें फर्क ही नहीं पड़ता की समाज कैसा हो। बस, जैसे-तैसे उनकी सीट और उनके नंबर आने चाहिएं। 

सामान्तर केस घड़ने से वो लोगों को अपने अनुसार उलझाते हैं और उसका फायदा उन्हें मिलता है। 

कैसे हो सकता है ये? थोड़ी जटिल प्रकिर्या है मगर एक बार आपको वो नजर आने लगेगी तो समझने में देर नहीं लगेगी। आपको किसी ने बोला ये सोडा की बोतल ले, और अपने फलां-फ़लां दोस्तों के साथ जाके, ये ये नौटंकी करके आ। आपको लगता है, क्या बड़ी बात है? और आप कर आए। एक बार कर दी और सही नहीं लगा या परिणाम सही नहीं रहे तो आप दुबारा नहीं करेंगे। मगर आपको कोई फर्क नहीं पड़ रहा की आपकी वो हरकत सामने वाले पे क्या असर कर रही है तो आप शायद बारबार करेंगे। रैगिंग पता है क्या होती है? जब ऐसा करने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता तो उनके हौसले बढ़ते जाते हैं और परिणाम? कुछ आत्महत्याओं के बाद हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को ऑर्डर निकालने पड़ते हैं, इस सबकी रोकथाम के लिए। भारत में भी ऐसा हुआ है क्या ? कब हुआ था?    

कहीं ऐसा तो नहीं की एक तरफ कुछ लड़कियों की या जूनियर्स की कहीं छोटे-मोटे किस्म की कोई testing शुरू हो गयी। और दूसरी तरफ रैगिंग को बढ़ावे? सामान्तर घड़ाई?

मतलब एक तरफ कोई एक शर्त लगाने वाली पार्टी हार गयी और दूसरी तरफ परिणाम? Hyped and Twisted! मतलब जोड़-तोड़-मरोड़ कुछ ज़िंदगियाँ तक ले गयी। 

लिखा या शर्त कहीं? शर्त हारने वाले कोई और। मगर सामान्तर घड़ाई में तो सिर्फ छोटी-मोटी, हार-जीत नहीं थी। बल्की ज़िंदगियाँ ही चली गयी। क्या कोरोना को हम ऐसे ही देख सकते हैं ? या यूँ कहें इस समाज का सच यही है? तो कैसे समाज का हिस्सा हैं हम, ये सब जानने के बावजूद? देखने-समझने के बावजूद? क्यों नहीं रोक सकते इन सामान्तर घड़ाईयोँ को? हर सामान्तर घड़ाई में बहुत-से छेद हैं। बहुत कुछ अटपटा है। वैसे ही जैसे Campus Crime Series में। 

जैसे के लिए कुछ उदाहरण लेने पड़ेंगे। कोशिश रहेगी, नाम, जगह की बजाय, आम आदमी को सम्बोधन हो।  

Friday, June 2, 2023

Mind Games and Human Programming

 दिमागी खेल और इंसानों का रोबोट बनाना (Mind Games and Human Programming)

 पहले स्तर पर वो हैं, जो ये खेल लिखते हैं या कहो दिमाग से ईजाद करते हैं। 

दूसरे पे वो हैं, जो इन्हें लागु करवाने के लिए FILES आगे बढ़ाते हैं। 

तीसरे स्तर पर FILES कुछ सीढ़ियाँ चढ़के या कुछ कदम चलके पास होती हैं या ऑफिस की शोभा बनती हैं, सालों-साल। शायद, फिर कभी दुबारा उठने के लिए या रद्दी का हिस्सा बनने के लिए।  

चौथे या पांचवें स्तर पर वो कार्य सफल होते दीखते हैं या असफल। 

हर पार्टी के पास अपनी Intelligence Wing है। जो दिमाग का प्रयोग कर वो सब लिखते हैं। मतलब किसकी फाइल चलेगी या किसकी नहीं, इसका युद्ध एक तरह से उस पार्टी की फाइल बनने के साथ ही शुरू हो जाता है। 

कुछ स्तर पार करने के बाद वो होता है या नहीं होता, जहाँ तक पहले स्तर पर लिखा गया था? जितना जल्दी होता है, उतना सही उस पार्टी के लिए। न होने या इस युद्ध के निरंतर चलने का मतलब, उनमें हेर-फेर भी होते रहते हैं।  

ये बिलकुल वैसे हैं, जैसे बच्चे मोबाइल या कंप्यूटर खेल-खेलते हैं। एक बाधा पार करके दूसरे स्तर पे पहुंचे। दुसरे स्तर को पार कर तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे। आसान खेल छोटे बच्चों के लिए। थोड़े और मुश्किल, उनसे बड़े बच्चों के लिए। और ऐसे ही, जटिल और जटिल होता जाते हैं, ये खेल।   

यही व्यवस्था (system) और राजनीती है। सब इसके इर्द-गिर्द घुमता है। 

समाज इसी व्यवस्था और राजनीति का आईना है। इसमें आम इंसान कहाँ है? ढूँढ़िये, अपने आप को इसमें। हैं क्या कहीं? कुछ होता है, इसमें आपके या आपकी मर्जी के अनुसार?

जैसे-जैसे, इन खेलों के स्तर इधर-उधर होते हैं, वैसे-वैसे इनके समान्तर केसों में बदलाव और उतार-चढाव। जैसे-जैसे कुर्सियों की खिंचातानी बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे सामान्तर केसों की पेचिदगियाँ। सबसे ज्यादा खिंचतान कहाँ बढ़ती है? जब किसी फाइल्स के इलेक्शन होते हैं। फाइल्स के भी इलेक्शन होते हैं? फाइल्स के ही इलेक्शंस होते हैं, क्यूंकि अलग-अलग पार्टी की अलग अलग फाइल्स होती है। अब वो इलेक्शंस कैसे होते हैं? आम-आदमी हिस्सा लेता है क्या उनमें? हाँ ? तो कैसे? ये जानना अहम् है। 

जिन फाइल वालों ने यहाँ-वहां की चैट उठायी, उनके देशों में Paper Ballot होंगे। कौन-कौन से देश हैं ऐसे? अमेरिका? इंग्लैंड? फ्रांस? जर्मनी?    

और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग-मशीन, कहाँ-कहाँ प्रयोग में होती है ? भारत? और? चलो ढूंढ के बताओ।  

अररे, ऐसे कैसे? इतने विकसित देश, आज भी Paper Ballot प्रयोग कर रहे हैं? और भारत जैसा देश, जहाँ आधी से ज्यादा आबादी आज भी तक़रीबन अनपढ़ है, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग-मशीन? क्यों? कुछ तो झोल है? नहीं? 

सोचिए क्या झोल है, या हो सकता है? और इस सबका Human Programming या इंसान को रोबोट बनाने में कैसे प्रयोग हो सकता है? जानते हैं, आगे किसी पोस्ट में। 

डर और डरावे!

आप डरते नहीं?

किससे और क्यों ?  .... ...... .......  ........ .........  

पता नहीं ऐसे-ऐसे, कैसे-कैसे और कितनी तरह के डरावे होते हैं दुनियाँ में।  


डर!

आप भी डरते हैं क्या? किससे? और क्यों?

आप भी उन्हीं में से हैं क्या जो कमजोरों को डराते हैं और अपने से ताकतवर से डरते हैं? 

कहीं-कहीं अचानक फायर होते हैं। कहाँ से, कैसे और क्यों, कई बार तो समझ नहीं आता। उस वक़्त बच निकले तो समझो बच निकले। जो उस वक़्त फंस गया, तो फंस गया। 

तमीज की कमी है। 

माहौल ही ऐसा है। 

परवरिश सही नहीं है। 

औरतों की कदर नहीं है, इस माहौल में। 

गँवार लोग हैं। 

भेझे से पैदल लोग हैं। 

जहाँ दिमाग नहीं होता, वहाँ ताकत के बल धकेला जाता है। 

आग इधर-उधर से लग रही है। इनका या उनका चाहा नहीं हो रहा। 

कितने ही जवाब हो सकते हैं ना?

डर और डरावे, कभी-कभी, छोटी-छोटी गुड़ियाओं को और मासूमों तक को बंधक बना कर रख देते हैं। और शायद ऐसी जगह धकेल देते हैं, जहाँ उन्हें नहीं होना चाहिए।