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Media and education technology by profession. Writing is drug. Minute observer, believe in instinct, curious, science communicator, agnostic, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Tuesday, September 19, 2023

आओ मानव रोबोट घडें?

ऐसा क्यों है की कहीं किन्हीं राजनीतिक कहानियों में जो हो रहा है, आपको लग रहा है की वैसा-वैसा कुछ मेरी ज़िंदगी में भी हो रहा है? Copy या Clone बनाना पता है क्या होता है ? और कैसे होता है ? बस आपके साथ वही हो रहा है। और आप खुद उस Process और Programming का हिस्सा बने हुए हैं -- जाने या अनजाने। 

यही नहीं, कहीं न कहीं, अपने बच्चों और बड़ों को भी बना रहे हैं -- जाने या अनजाने। 

कैसे ?

आओ मानव रोबोट घडें? 

एक तरीका है 

Copy, Cut और Paste  आओ मानव रोबोट घडें? 

हो गया ? अरे यही तो लिखना था आओ मानव रोबोट घडें? 

बनाना हो तो?  

पौधों से शुरू करें? क्या-क्या तरीके हैं पौध बनाने के?  

एक तो वही Copy, Cut और Paste

दुसरा तरीका?

तीसरा तरीका?

और भी कितने तरीके हो सकते हैं? आप पौधों के बताओ या सोचो। तब तक -- 

चलो एक कागज लेते हैं और नाव बनाते हैं। बचपन में बनाई होगी ना? या शायद हवाई जहाज? 

आता है तो किसी और को सिखाओ। और अगर नहीं आता? तो किसी से सीख लो। 

क्या-क्या सामान चाहिए? क्या प्रकिर्या होगी ? और कैसे उस प्रकिर्या को करना है ? Programming और Process.  

ऐसे ही एक इंसान के या पार्टी की रची कहानी को, किसी और इंसान पे थोपा जा सकता है क्या? थोंपना क्यों है? उसे अपने साथ लो और थोड़ा बहुत किसी भी किस्म का लालच या डर दिखाओ। अब वो इंसान, आपका कहा या रचा करता जाएगा। और आपका काम हो गया। बस एक शर्त। उतना ही बताओ, जितने में आपका काम हो जाए। उससे ज्यादा पता लग गया तो मुश्किल हो जाएगी। मतलब, जितना बताना जरूरी है, उतना ही छुपाना भी जरूरी है इस धंधे में। और हो गई कॉपी। बन गया क्लोन। मानव रोबोट। कितने ही मानव रोबोट घड़ सकते हैं ऐसे। राजनीतिक पार्टियाँ और ये बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ बस यही सब कर रही हैं, आमजन के साथ।

एक छोटा सा उदहारण लें, शायद आपके भी आसपास ऐसा कुछ हो रहा हो?

कोई बच्ची पैदा हुई और कोई बोले, की ये हो गई, फलाना-धमकाना की लुगाई पैदा। वो जैसे अपना राजस्थान में या शायद हरियाणा और NCR तक में आज तक होता है? पैदा होते ही शादी तय? या शायद शादी जैसा-सा कुछ? या शायद उसके नाम पे कुछ और? या शायद पैदा होने से पहले ही? की लड़की हुई तो हमारे यहाँ आएगी और लड़का हुआ तो तुम्हारे यहाँ? मतलब, अगर लड़का हुआ तो फलाना-धमकाना का खसम। अबे गधे से दिमागो, उन्हें थोड़ा बड़ा होने दो। खुद इस दुनियादारी को समझने दो। उसके बाद शायद उनसे पूछने की भी नौबत आए और जो तुम घड़ रहे हो, वो उन्हें पसंद ही ना आए। फिर? जबरदस्ती करोगे क्या? आसपास जो समझ आया वो ये की बच्चों के जन्म तारीख और नाम के हिसाब से, पता नहीं इस पार्टी या उस पार्टी ने ऐसी-ऐसी कितनी ही घड़ाईयाँ की हुई हैं। और खुद के उनके अपने परिजन, नौटंकियों के नाम पे, उनकी नुमाईश ऐसे कर रहे हैं, जैसे सर्कस के कोई जोकर। अब तेरा नंबर। अब तेरा। आज तेरा। कल तेरा। परसों तेरा। ये सिर्फ गाँव की कहानियाँ नहीं है। बल्की यूनिवर्सिटी में भी कुछ ऐसे-ऐसे पीस थे या कहो हैं। 

एक दिन बॉस से कुछ झगड़ा हो गया। होता ही रहता था वहां तो। रोज ऑफिस में यही तो ड्रामे चलते थे। पढ़ाई-लिखाई थोड़े ही चलती थी। इस पार्टी या उस पार्टी के कलाकार कुर्सियों पे और शीतयुद्ध फाइल्स का। यहाँ-वहाँ रोड़े अटकाने का। जो जितना बढ़िया रोड़े अटकाऊ और चापलूस, उसका उतना बढ़िया और जल्दी प्रमोशन और सुविधाएँ। जो हरामी डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठकर ये कहे की डिपार्टमेंट में पढ़ाई या रिसर्च का वातावरण देना उसका काम नहीं है और फिर भी इतना वक़्त उस कुर्सी पे टिक जाए। कैसे-कैसे लालच ना? एक दिन बॉस से थोड़ी बहुत कहासुनी हो गई। बुला लिए अपनी पार्टी के newspaper के सिपाही, और अपने लड़के के साथ फोटो चिपकवा दी। और आप सोचें, इस चापलूस इंसान ने, एक छोटी-सी बात पे, अपने ही बच्चे को भी बीच में क्यों घसीट लिया? राजनीति के ड्रामों के बाप, बेटे, दादे, पोतों की कहानी, थोड़ा बाद में समझ आई। और बच्चों की ज़िंदगियों पर उन ड्रामों में शामिल करने के असर की थोड़ा और लेट। खासकर, गाँव में आने के बाद। बच्चों की बीमारियों से।      

गाँव वाले बेचारे अपने बच्चों की ज़िंदगियाँ और रिश्ते बचाने में ही व्यस्त हैं। बैगर संसाधनों और दिमाग के लोग। कितने ही केस भुगत रहे हैं, जिनमें राजनीतिक पार्टियों के सामांतर तड़के हैं। कितने ही युवाओं की ज़िंदगियाँ, उन सामांतर तड़कों की घड़ाई में खराब हो चुकी या हो रही हैं। और वो पढ़े लिखे शिकारी? इनसे भी माल लूटने में, इधर भी और उधर भी? उन कुर्सियों पे बैठकर, वो कौन से समाज का भला करते हैं? उसका, जिसने उन्हें वो कुर्सियां दी हैं? या उसका, जिसके नाम पे वो कुर्सियां दिखाने भर को सजी हैं? बस? मुझे ऐसे पढ़े लिखे गँवार और जुर्म पैदा करने वाले या छिपाने वाले समाज का हिस्सा नहीं होना। 

किसी भी समाज की बदहाली या खुशहाली का फर्क, इतना-सा ही है शायद, की इस जिम्मेदार कहे जाने वाले वर्ग ने अपने समाज के लोगों को व्यस्त कहाँ किया हुआ है? कैसे कामों में लगाया हुआ है? और दिखावे और हकीकत में फर्क कितना है? 

इन्द्रियों का ज्ञान -- उपयोग और दुरूपयोग

इन्द्रियों का ज्ञान -- उपयोग और दुरूपयोग 

(Mind Programming and Nervous System-- मानव रोबोट बनाना और उसमें तंत्रिका तंत्र की भुमिका। अलग-अलग तकनिकों का प्रयोग कर उसके क्या उपयोग और दुरूपयोग हो सकते हैं? या हो रहे हैं? 

Mind Programming and Editing -- Brainwash 

मानव रोबोट बनाने में इनका प्रयोग या दुरूपयोग कैसे होता है? 

Interactive and Immersive World

प्रस्तुति पे निर्भर करता है (Presentation Matters) की आपको क्या समझ आता है और क्या हकीकत होती है। बहुत बार जो दिखता या सुनता है, वो होता नहीं, और जो होता है, वो दिखता नहीं। दुनियाँ में तकनिकों का विकास और प्रयोग जिस तरह से हो रहा है, उनके बुरे प्रभावों पे नकेल उतनी तेजी से विकसित नहीं हो रही।  

संवादत्मक (Interactive) या एक ऐसा संवाद या इस तरह से एक-दूसरे से मिलना या विचारों का आदान-प्रदान करना, की वो आपस में एक-दूसरे को प्रभावित करते हों। ऐसा संवाद या ऐसे संवाद का प्रभाव इंसानों पर जीव भी करते हैं और निर्जीव भी। 

आपका सामने वाले के साथ रिस्ता कैसा है ? ये इस बात पर निर्भर करता है की आप सामने वाले को अनुभव कैसा करवाते हो।  

अच्छे से पेश आते हो या बुरे से ? 

चीज़ों या तथ्योँ को छिपाते हो या साफ और सीधे इंसान हो ? 

सामने वाले का भला चाहते हो या अंदर ही अंदर काले हो, घात या द्वेष रखते हो ? 

सामने वाले के नजरिए की कद्र करते हो या अपना नजरिया थोपने में विश्वास रखते हो ? 

आगे बढ़ने और बढ़ाने की बातें करते हों। या खुद भी उलझ-पलझ हो और सामने वाले को भी उलझाकर रखते हो या रखना चाहते हो ?  

किसी के भी पास जो होता है, वो ज्यादातर वही बाँटता है। जैसे बच्चा बचपन, बुजुर्ग अनुभव, वयस्क आगे बढ़ने और जोखिम ले पाने की ऊर्जा और क्षमता। वैसे ही, आपका वातावरण भी आपको बहुत कुछ बाँटता है। हमारे चारों तरफ वो दुनियाँ जिससे हम घिरे रहते हैं, असलियत में (Real World), हमें कैसे प्रभावित करती है?   

अगर आप एक अच्छे घर या कॉलोनी में रहते हैं, तो साफ़-सफाई, स्वच्छता और शायद दान, ज्ञान जैसा कुछ बांटते हों? अब जरूरी नहीं की हर इंसान वहाँ एक जैसा हो। तो इंसान-इंसान पे निर्भर करता है। ये तो हुई जीव की बात। 

निर्जीव क्या बांटेंगे यहाँ? सफाई, स्वच्छता, शुद्ध हवा, पानी, हरियाली, हर इंसान या कहना चाहिए जीव के लिए, अच्छा-खासा रहने, फलने-फूलने और आगे बढ़ने का वातावरण। वहाँ इंसानों के लिए ही नहीं, बल्कि वहाँ रहने वाले ज्यादातर जीवोँ के लिए ऐसा वातावरण मिलेगा। वहाँ घर से बाहर आवाज़ें भी कम ही आती हैं और हाथापाई तो शायद ही कभी देखने को मिले। बोलने में भी ज्यादातर शालीनता मिलेगी। इनके बीच में भी कितनी ही तरह के संसार हो सकते हैं? अगर ऐसा नहीं है, तो इसका मतलब, वो घर या कॉलोनी उतनी अच्छी नहीं है। 

इसके विपरित किसी घर या कॉलोनी में चलें? जहाँ मुश्किल से सर छुपाने को छत हों। साफ पीने के पानी तक की सुविधा न हो। बिजली भी कम आती हो। ज्यादातर कम पढ़े-लिखे या मात्र डिग्रीधारी लोग रहते हों। मतलब डिग्री जैसे-तैसे प्राप्त तो कर ली हों, मगर उनका उपयोग न आता हो। साफ़-सफाई भी कम रहती हो। मतलब संसांधनों की या तो कमी या जैसे-तैसे काम चल रहा हो। वहाँ संघर्ष ज्यादा होंगे और फलने फूलने या आगे बढ़ने के सन्साधन कम। ऐसा वातावरण क्या बांटेगा? बिमारियां, अंधविश्वास, जीने के लिए संसाधनों के लिए लड़ाई-झगडे आदि। ऐसा नहीं है की लड़ाई-झगडे पॉश कॉलोनी या समृद्ध घरों या देशों में नहीं होते। मगर वो वर्चस्व के लिए होते हैं। जिदंगी को थोड़ा और ढंग से जीने के लिए नहीं।     

ये तो हुई उस वातावरण की बात, जो हम असलियत में महसुस करते हैं या जहाँ रहते हैं (Real World)। उनमें इंसान, जीवजंतु और निर्जीव संसांधन जैसे घर, स्कूल, ऑफिस, परिवहन, रोड़, पानी, कचरा के बंदोबस्त जैसी कितनी ही सुविधाएँ भी शामिल हैं। आप जिस किसी वातावरण में हैं उसे असलियत में सिर्फ महसुस नहीं करते, बल्कि जीते भी हैं और झेलते भी हैं।  

उसके बाद आता है वो संसार, जहाँ आप हैं भी और नहीं भी -- आभासी दुनियां (Virtual World) । महसूस करते भी हैं, मगर ऐसा होता दिखता भी कम है। उस महसुस करने में अलग-अलग इन्द्रियों का अलग-अलग प्रभाव है। 

यहाँ देखना-सुनना अहम् है। 

इस संसार में क्या आप एक दुसरे को छु सकते हैं ? 

या कोई गंध मह्सूस कर सकते हैं ? 

या चख़ कर मीठा-कड़वा, फीका या तीखा आदि का ज्ञान करवा सकते हैं ?

या -- 

इन सब इन्द्रियों के ज्ञान से बने मिश्रण को किसी खतरे या फायदे के लिए उपयोग या दुरूपयोग कर सकते हैं ?

अगर हाँ तो कितना ? 

और आपके आसपास ऐसे-ऐसे, कौन से तकनीकोँ वाले उपकरण हैं, जो ये सब करने में मदद करते हैं ?

ज्यादातर आम-आदमी को आज भी ये सब नहीं मालुम। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ, इन सबका प्रयोग या ज्यादातर दुरूपयोग, अपना उत्पाद बेचने में करती हैं। मगर वो कैसे लुभाती हैं ? और उसके परिणाम या कहना चाहिए दुष्परिणाम या नुकसान क्या हैं ? आम आदमी को वो सिर्फ फायदे गिनाती हैं, नुकसान नहीं। जबकि नुकसान ज्यादातर ज्यादा बुरे और कभी-कभी तो घातक भी होते हैं। इस संसार को आभासी दुनियाँ (Virtual World) कहते हैं। 

इस आभासी दुनियाँ में अगर कुछ और तकनिकों के ज्ञान के तड़के लगा दें, तो ये आम-आदमी को रोबोट बना देती है। वो भी आम-आदमी की जानकारी के बिना। ईजाजत लेना तो बहुत दूर की बात है। उसपे, आम-आदमी को लगता है, की वो सब खुद ही कर रहा है। उसे नहीं मालुम की उसे रोबोट बनाया जा चुका है और वो सिर्फ वो कर रहा है, जो उससे करवाया जा रहा है। आम-आदमी उसके दुष्परिणाम बहुत जगह झेलता है। 

 Interactive and Immersive World (आग का दरिया है और डुब के जाना है?) 

इस आग के दरिया में ज्यादातर बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ या राजनीतिक पार्टियाँ घी डालने का काम करती हैं, अपनी-अपनी सहुलियत के अनुसार। समझो एक समंदर में आपको धकेल दिया है। अब आप उस समंदर में जीवित भी रह पाते हैं या नहीं, ये किसपे निर्भर करेगा? सिर्फ जीवित रह पाने के संघर्ष में लगे हैं या ज़िन्दगी ढंग से भी चला पा रहे हैं? ये कौन-कौन सी चीज़ों पे निर्भर करेगा? उसके लिए आपको कौन-कौन से संसधानों की जरूरत होगी?  

जैसे समुन्दर में पानी में हैं तो उसके बाहर जहाँ हम रहते हैं, वहाँ पानी की बजाय हवा होती है। हम साँस लेते हैं मगर हमें पता नहीं होता की हम उसकी वजह से ज़िंदा है। उसका शुद्ध होना कितना जरूरी है। और अगर वो शुद्ध न हो तो कैसी-कैसी समस्याएँ आ सकती हैं?

Interactive मतलब आपके चारों तरफ क्या है जिसके संपर्क में आप आते हैं या रहते हैं। जो किसी भी तरह से आपको प्रभावित करता है। जीव और निर्जीव। जी हाँ !निर्जीव भी अहम् हैं और प्रभाव डालते हैं। 

Immersive जिससे बाहर कुछ दिखाई ही न दे। एक तरह का ऐसा वातावरण जो आपको घेर कर रखता है और जिसमें आपकी आगे बढ़ने की क्षमता वैसे ही निर्भर करती है, जैसे किसी शिशु का एमनियोटिक फ्लूइड (Amniotic Fluid)। एक तरह से संगत भी और उससे थोड़ा आगे बढ़के जैसे ध्यान लगाना। या शायद भुलावा भी, छलावा भी, और एक तरह का जादु भी। कुछ के लिए भक्ति या शायद भगवान भी। और भी कैसे कैसे प्रभावित करता है ये immersion? इस सबके पीछे कौन-कौन सी तकनीकें हैं या विज्ञान है?      

आम आदमी इस immersive और interactive वातावरण के प्रभाव में रहता है। जिसको उससे पुछे बिना, बताए बिना बदला भी जा सकता है और कितनी ही तरह के हेरफेर भी किए जा सकते हैं। अब वो उन सबके प्रभावों या खासकर दुस्प्र्भावों से कितना बच पाता है और कितना नहीं ? ये इन तकनीकोँ के ज्ञान और उसके प्रभावों से बच पाने की समझ पर निर्भर करता है। 

आप सोचिये इस वर्चुअल वर्ल्ड (Virtual World) और उससे जुडी अलग-अलग तरह की तकनीकों में प्रयोग या दुरूपयोग होने वाले, अपने आसपास के उपकरणों के बारे में। और आपकी ज़िंदगी पर उनके प्रभावों के बारे में। आते हैं इस दुनियाँ पर भी, आगे किसी पोस्ट में। 

Monday, September 18, 2023

जानकारी अहम है, मानव-रोबोट बनाने के लिए।

किसी को कहीं बुलाने के लिए। किसी को किसी से मिलाने के लिए। किसी को कहीं से भगाने के लिए। किसी को कहीं उगाने के लिए। किसी उगे हुए को उजाड़ने के लिए। दिखेगा ऐसे, जैसे वो जीव (इंसान भी) ऐसा खुद कर रहे हों। मगर हकीकत, गुप्त तरीके से की गई Programming और Processing (Invisibly Directed Show) भी हो सकती है। 

अगर आपको किसी जगह के सिस्टम के बारे में जानकारी चाहिए, तो वहाँ के पेड़-पौधों, पक्षियों-जानवरों को पढ़ना शुरू कर दिजिए, मिल जायेगी। जीव विज्ञान (Biology) या इससे जुड़े लोगों के लिए समझना शायद आसान हो। आम-आदमी इसे कैसे समझे? क्युँकि इसी में उनकी ज्यादातर समस्याएँ और उनके समाधान भी हैं। 

खेतों को जब नुलाते हैं या पानी देते हैं तो वहाँ कोई खास तरह के तरह के पँछी आते हैं क्या? शायद बगुला, बतख जैसे? क्यों? 

खाली पड़े घरों या हवेलियों में मकड़ी के जाले, चूहों, सांपों के बिल, चमगादड़ रहते  हैं क्या?

शमशान घाटों के आसपास, बड़े ऊँचे पेड़ों या टॉवरों पे गिद्धों के समुह मँडराते हैं क्या?

गर्मी में छत पे या ऊँची दीवारों पे पानी रख दिया तो खास एरिया में कुछ खास तरह के पंछी आने लग जाते हैं क्या?

ज्यादा हरियाली, खुली जगहों और ऊँचे पेड़ों के आसपास मोर दिख जाते हैं क्या?    

हर जीव का एक खास तरह का जीवन साईकल है। जिसमें अहम है, सुरक्षा, खाना-पानी और रहने की जगह। उसके बाद जीवन को आगे बढ़ाने के लिए, अपने जैसे जीवजंतु। ये तो मोटी-मोटी जानकारी है। जो आमजन तक को पता होती है। जिसे बच्चे भी समझ सकते हैं। इस तरह की बारीकियों की जानकारी बहुत कुछ नियंत्रण में कर सकती है। इंसानो को भी। वो भी ज्यादातर इंसानों की जानकारी के बैगर। 

दुनिया का सिस्टम कुछ इस तरह से automation पे है, की बहुत कुछ, इधर-उधर, वहाँ की बड़ी-बड़ी राजनीतिक ताकतें और बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ करती हैं। सरकारी या प्राइवेट, सब संसाधनों पे उनका नियंत्रण है। मतलब, काफी हद तक वहाँ के इंसानों पर भी। यही मानव-रोबोट बनाने में अहम भुमिका निभा रहा है।  

जितनी ज्यादा इस सिस्टम की जानकारी होगी, उतना ही ज्यादा आप इस सिस्टम के कब्जे से कुछ हद तक बाहर रह पाएंगे। इसके फायदों को ले पाएंगे और नुकसानों से बच पाएंगे। जितने ज्यादा इससे अज्ञान और अंजान रहेंगे, उतने ही ज्यादा इसके रोबोट बने रहेंगे।  

राजनीती की चलती-फिरती गोटियाँ

कोई इंसान किसी परिवार, खास तरह के तबके या समाज में कितना अहम या फालतु हो सकता है? आपकी अपनी भुमिका वहाँ क्या है? या क्या बना दी गई है? या प्रस्तुत की जा रही है? इधर के लोगों द्वारा या उधर के लोगों या पार्टी द्वारा? और हकीकत क्या है? 

K Control? 

N Control? 

यहाँ के लोगों को, परिवारों को, उनकी ज़िंदगियों को, उतार-चढ़ाओं को, संघर्षों को, दो तरह की पार्टियाँ नियंत्रित कर रही है। चलो, इन्हें नाम दे देते हैं A पार्टी और B पार्टी। जितनी भी पार्टियाँ हैं, उन्हें इन दोनों में बाँट दो, इधर या उधर। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे INDIA और BJP। या शायद, कुछ एक धड़ों को इनसे अलग रखने की भी जरुरत है?

ये सब पार्टियाँ क्या कर रही हैं?

इन लोगों के लिए काम कर रही है? 

या इन पार्टियों का अपना, अपनी ही तरह का कोई मायावी संसार है? एक ऐसा संसार, जिसे वो इन लोगों पर और इनकी ज़िंदगियों पर थोंप रही हैं? थोंपना भी ऐसे, की लोगबाग अपनी ज़िंदगी न जी कर, इन पार्टियों की घड़ी कहानियाँ और उनके किरदार जी रहे हैं। किरदार भी ऐसे-ऐसे, जो हकीकत के आसपास भी न हों। या अगर थोड़ा बहुत उन किरदारों के आसपास भी हों, तो किन्हीं लोगों का कोई गुजरा भूत हों। भूत भी शायद कोई बहुत अच्छा नहीं। हकीकत वाले उन इंसानों के लिए, उनकी ज़िंदगी में जिसका महत्व किसी खरपतवार से ज्यादा न हो। ये पार्टियाँ, इन लोगों को अपनी गोटी से ज्यादा कुछ समझते ही कहाँ हैं। 

राजनीतिक पार्टियाँ, जिन्हें मालुम है की इंसान के खोल में, भेझे से पैदल या कहो अज्ञान और भोले लोगों को अपने अनुसार चलाना कैसे हैं। उन राजनीतिक पार्टियों को धेला फर्क नहीं पड़ता, की इन लोगों की जरूरतें क्या हैं। क्युंकि वो इन्हें इंसान थोड़े ही समझती हैं। सिर्फ अपनी गोटियाँ समझती हैं। अब अगर आपको तरीके मालुम हैं, उन चलती-फिरती गोटियों को चलाने के, तो कैसे भी चला दो। या और भी बढ़िया, अपनी-अपनी चालों में, ऐसे उलझा दो, जैसे मारने वाले खुंखार सांडों के बीच झाड़। या शायद चक्की के दो पाटों के बीच पीसने के लिए दाने। 

इस घटिया और घिनौनी राजनीती से परे, इन लोगों की जिंदगी की बुनियादी जरूरतें क्या हैं? वो क्यों पीस रहे हैं इन्हें, अपने राजनीतिक सांडों और इनके रचे मायावी संसार में? कितना मुश्किल है, ऐसी बेहुदा राजनीती के जालों-जंजालों से निकल पाना? और अपनी ज़िंदगी की बुनियादी जरूरतों तक को पुरा कर पाना? सच में इतना मुश्किल है, जितना इन्हें लग रहा है? या इसे मुश्किल, इस राजनीतिक-सर्कस ने बना दिया है?                          

Friday, September 15, 2023

On (1), Off. (2), Over (3) , Control Freaks and Elections (4)?

1. On 

2. Off.

3. Over 

Control Freaks and 

4. Elections?  

लफड़ा-ए EVM क्या है?

जब सिर्फ AC चले और सब बंद हो जाए? (15. 09 2023)  

जब 14 अगस्त को संतरो (Santro) किसी खास जगह सो जाय? (14.08.2023) 

फिर से कोई हादसा बच गया, 

या शायद ड्रामा ही इतना-सा था?  

जब नया Microwave कोई खास कोड दिखाए?

जब गाडी की स्पीड अपने आप बढे 

और आपका पैर तक accelerator पर न हो! 

और भी कितने ही ऐसे-ऐसे कारनामे। 

Elections and EVM in India? 

(थोड़ा बहुत तो लिखना बनता है शायद) 

ये कौन से समाज में हैं हम?


और दूसरी तरफ  

ये भी एक दुनियाँ है, जहाँ मैं आजकल हूँ। 

Thursday, September 14, 2023

मानव रोबोट और विचलित दिमाग।

कैसे लोगों को मानव रोबोट बनाना आसान है? जो शांत दिमाग हों या विचलित दिमाग? जल्दी गुस्सा करने वाले लोग या विपरीत परिस्थिति में भी स्थिर स्वभाव वाले?  

विचलित दिमाग जैसे, तड़क-भड़क, टूट-फुट। ऐसे लोग सामने वाले का तो नुकसान करते ही हैं। अपना कहीं ज्यादा करते हैं। वो सिर्फ माहौल को असहज नहीं बनाते, बल्कि अशांत भी करते हैं। आसपास के ही कुछ उदाहरण -- यूनिवर्सिटी में एक Organized Crime हुआ, मार-पिटाई का। जिसे मारा-पीटा गया, वो तो शायद निकल गया काफी हद तक उस वाक्या से और ऐसे माहौल से भी। मगर उसके आगे और क्या-क्या हुआ? उन राजनीतिक पार्टियों या कुर्सियों को उसका कितना फायदा हुआ? उस यूनिवर्सिटी की बदनामी हुई या उसे इनाम मिला कोई? उसका प्रभाव सिर्फ वहीं तक रहा या उसका असर कोविड तक गया? कोविड रचने वालों ने कोविड को खुद भी भुगता या सिर्फ दुनियाँ भर के आमजन तक ने उसका असर सहा? कोविड (Operation Warp Speed, USA) असल में रचा किसने और क्यों? उसका फायदा किसे हुआ और नुकसान किसे? थोड़ा ज्यादा हो गया ना? ये ज्यादा अक्सर, आभासी दुनियाँ को बढ़ा-चढ़ा कर होता है। इसी को Manifestations और Manipulations कहते हैं। 

चलो दुसरे आसपास पे आते हैं। यहाँ गाँव में आसपास कुछ-कुछ ऐसी ही घड़ाई, मार-पिटाई के किसी के ससुराल के केस में सुनने को मिली। अब उस सामान्तर घड़ाई में कितना सच है और कितना इधर-उधर का मिर्च-मसाला, ये तो असली बन्दों को ही पता होगा। इससे पहले ऐसे-ऐसे केस यूनिवर्सिटी और आसपास भी सुन चुकी थी।  मगर तब शायद ये सामान्तर घड़ाई कैसे होती है, वाली समझ कम थी। ऐसे ही कोविड के बाद जैसे मैं घर आई, आसपास भी कुछ-कुछ ऐसी ही सामान्तर घड़ाई, किसी और के केस में सुनने को मिली। अब वहाँ भी कितना सच है और कितना मिर्च-मसाला, ये तो हकीकत के लोगों को ही पता होगा। सुनी-सुनाई, आभासी दुनियाँ है। मगर उस आभासी दुनियाँ को कई बार खुद हकीकत वाले लोग भी भढ़ाते-चढ़ाते मिलते हैं। और आपको समझ ही नहीं आता की कोई खुद ऐसा क्यों करेगा? किसी और केस के सामान्तर घड़ाई का हिस्सा? वो भी अच्छा नहीं, बल्कि बुरा और उसमें खुद ही शामिल हो जाना? ज्यादातर ऐसा अनजाने में होता है या राजनितिक लोग उसके पीछे छुपे होते हैं, करवाने में? वहाँ उन्हें नुकसान नहीं बताए जाते। सिर्फ और सिर्फ फायदा दिखाया जाता है। ज्यादातर लोग लालच में आकर करते हैं, क्युंकि उन्हें नुकसान दिखते ही नहीं या कहो जानभूझकर छुपा दिए जाते हैं। और कभी-कभी शायद कोई डर का मोहरा भी फेंका जाता है। इसी को Manifestations और Manipulations कहते हैं। और Reward and Punishment वाली ट्रेनिंग के तड़के भी। 

ऐसी विपरित परिस्थितियों में शांत दिमाग अक्सर झेल जाते हैं। और वक़्त के साथ जैसे-तैसे परिस्थितियों पे काबु भी पा जाते हैं। मगर अशांत दिमाग और ज्यादा नुकसान खाते हैं, और आसपास भी अशांत माहौल बनाते हैं।

तड़क-भड़क, तोडना-फोड़ना और विचलित दिमाग, एक जैसे-से ही होते हैं। तो असर भी एक जैसे-से ही होंगे की नहीं? अपने आसपास नजर दौड़ाओ की कौन-कौन, ज्यादा अशांत या विचलित दिमाग हैं, या घर हैं? और कौन-कौन, सहज-शांत या कहो, आसानी से विचलित न होने वाले? शांत लोगों के यहाँ अक्सर समृद्धि और आगे बढ़ने की क्षमता ज्यादा मिलेगी। यूँ ही थोड़े कहते हैं, की खाते-पीते घरों से अक्सर तेज या लड़ाई-झगडे की आवाजें कम ही आती हैं। जितना ज्यादा गरीबी बढ़ती जाती है, ऐसी आवाज़ें भी अक्सर बाहर ज्यादा सुनने को मिलती हैं। ऐसा भी नहीं है की वहाँ झगडे ही ना होते हों। एक तो घर बड़े होते हैं और बाहर से तांक-झाँक के रस्ते कम। उसपे हैसियत होती है, अलग-अलग घर, अलग-अलग जगह लेने की, बना पाने की। अलग-अलग जगह काम कर पाने की। दूर-दूर रहने पे, ज्यादातर ऐसे झगडे तो वैसे ही खत्म हो जाते हैं, जिनके लिए गरीब या मध्यम वर्ग मरकट रहे होते हैं। इसीलिए अमीर घरों में अक्सर वर्चस्व के झगडे होते हैं। 

जितने बड़े घर, उतने बड़े वर्चस्व। जितने छोटे घर, उतनी ही छोटी-छोटी बातों पे तु-तड़ाक। छोटे-लोग (गरीब कहना चाहिए), छोटे-छोटे झगडे। बड़े लोग इन्हें तुछ भी बोलते हैं। बड़े लोग, बड़े-बड़े झगडे। बड़ी-बड़ी महाभारतें, और बड़े-बड़े षड़यंत्र। जैसे लाक्ष्यागृह जैसे युद्ध रचने और करने वाले। और दूसरी तरफ ये घर तेरा नहीं मेरा है, निकल यहाँ से। मेरे घर में सामान क्यों रखा है, निकाल इसे। ये बाथरूम गन्दा कर दिया, साफ़ तेरा बाप करने आएगा। ये मेरी रसोई है, कहीं भी कुछ नहीं रख सकते। या ये इतने भांडे कर दिए, तेरी माँ माँजन आवगी -- वैसे बाप या भाई क्यों नहीं? ये गाडी यहाँ खड़ी मत कर या बाहर कर। और भी पता नहीं क्या-क्या, गरीब या मध्यम वर्ग के घरों से अक्सर सुनने को मिलता है। गरीब या मध्यवर्गीय लोगों को लगता है की ये अमीर लोग लाक्ष्यागृह जैसे षड़यंत्र ही क्यों रचते हैं? और अमीरों को? क्या चीक-चीक लगी रहती है न यहाँ, छोटी-छोटी, तुच्छ बातों पे। अपना-अपना नहीं बना सकते या थोड़ा दूर किसी और जगह नहीं रह सकते?

दिमाग को ऐसे पेंडुलम की तरह स्थिर कर, इधर-उधर की तुलना से ये भी समझ आता है, की ज्यादातर झगड़े और उनकी वजहें, अक्सर खामखाँ ही होती है। जहाँ तक हो सके उनसे दूर ही हो जाना चाहिए। कितनी ही बीमारियाँ और लाचारियाँ झगड़ों के वातावरण के देन होती हैं। ऐसे माहौल से दूरी मतलब, ऐसी-ऐसी बीमारियाँ से भी मुक्ति। 

Wednesday, September 13, 2023

हेराफेरी: इंसान के व्यवहार को बदलने के लिए

Mind Programming

Manipulative Techniques to change human behaviour 

इंसान के व्यवहार को बदलने के लिए, हेराफेरी के तोर-तरीके या तकनीकें।        

मानव-रोबोट बनाने में आपका कोई भी गुण या अवगुण प्रयोग में लाया जा सकता है। किसी भी लत की तरह, उसे घटाया या बढ़ाया जा सकता है। ठीक वैसे ही, जैसे शराब पीने, ड्रग्स लेने, हुक्का पीने, चाय पीने जैसी किसी लत या आदत को। उसको आपके खिलाफ भी प्रयोग किया जा सकता है। और तोड़-मरोड़ कर और भी कितनी ही तरह के प्रयोग किए जा सकते हैं। 

लालच और डरावे (Reward and Punishment Training) 

जैसे पालतु जानवरों को ट्रेनिंग दी जाती है या जैसे बच्चों को ट्रेनिंग दी जाती है। 

ये ट्रेनिंग ऐसी-ऐसी ट्रेनिंग देने वाले लोगों के लिए ज्यादा आसान होती हैं। वो दुर बैठकर भी ऐसा कर सकते हैं। मतलब रिमोट कंट्रोल मानव-रोबोट बनाना। 

ऐसा करने से पहले उन्हें आपके बारे में बहुत कुछ पता होना चाहिए। वो निगरानी के संसाधनों के दुरूपयोग (surveillance abuse) के द्वारा आसान हो जाता है। 

असली संसार (Real World) में कोई आपके बारे में कोई कितना जान सकता है?  

आपके घर में या आस-पड़ोस में कौन-कौन है?  

आपके दोस्त कौन हैं? दुश्मन कौन हैं? 

सहज कहाँ रहते हो? कहाँ या किन मुद्दों पे असहज हो जाते हो? 

पसंद-नापसंद क्या है? विचारधारा क्या है?  

वित्तिय स्थिति क्या है,  कुछ हद तक शायद?

हाँ ! अगर कोई पीछा कर रहा/रहें हों या खास जासूस छोड़ रखा/रखे हों, तो अलग बात है। ऐसे मुखबिर ज्यादातर सेना, गुप्तचर विभाग, पुलिस और अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के लिए काम करने वाले होते हैं।   

आभासी दुनियाँ (Virtual World) 

आपकी IDs क्या हैं? क्युंकि IDs अपने आप में आपके बारे में एक पर्सनल ज्ञान का पिटारा हैं। जो सिर्फ आपका नाम नहीं बताती, बल्कि जन्म तिथि से लेकर, माँ-बाप, भाई-बहन, बीवी-बच्चे, बुजुर्ग, जन्म स्थान, शिक्षा, एड्रेस, फ़ोन नंबर के इलावा भी काफी कुछ बताती हैं। और हमारी ज्यादातर IDs ऑनलाइन हैं। 

फ़ोन पे या इंटरनेट पे, सोशल मीडिया पे, किन-किन से बात करते हो? क्या बात करते हो? कितनी देर बात करते हो? रुचि क्या हैं? आपके घर या रिश्तेदारों में कौन-कौन हैं? और उनके रिस्तेदार? आपके दोस्त कौन हैं? दोस्तों के दोस्त? या Circle कैसा है? कहाँ-कहाँ रहता है? ये सब क्या करते हैं? मतलब background क्या है?   

घर या बाहर मतभेद कहाँ-कहाँ हैं? कहाँ कम हैं, और कहाँ ज्यादा हैं? 

कहाँ मतभेद पैदा करना मुश्किल है और कहाँ आसान?  

कहाँ-कहाँ लाइक करते हो? सब्सक्राइब करते हो? कॉमेंट करते हो? कैसे कॉमेंट करते हो? किस पोस्ट या फोटो या विडियो पर कितनी देर फोकस करते हो? किस हिस्से पर ज्यादा फोकस करते हो? कितनी बार किसी वेबसाइट या प्रोफाइल को खोलते हो या चैक करते हो? और भी बहुत कुछ ऐसा ही।     

सोचो आपने यूनिवर्सिटी से घर (गाँव) शिफ्ट करना शुरू किया हो। तो कैसे लोग चाहेंगे की आप घर ही बैठ जाएँ या बैठने के लिए ही आए हैं? और आपका वही आखिरी ठिकाना है? जो आपको आगे बढ़ते देखना चाहते हैं या पीछे? आपके दिमाग में या अंडर प्रोसेस कोई प्रोजेक्ट हों और उन्हें पता ही न हो? इसी बीच एक छोटा-सा प्रोजेक्ट, जो किन्हीं अपनों के लिए हो, शुरू होने से पहले ही खत्म कर दिया जाए। कुछ खास लोगों के direct-indirect शब्दों में! पहली बात कौन होंगे वो ऐसे खास लोग? और उन्हें कैसे लगा की किसी इंसान के जाने से वो प्रोजेक्ट ही खत्म हो गया? जमीन-जायदाद के खास झगडे वाले लोग? कुर्सियों की उठा-पटक वाले लोग? वो लोग, जो जितना जल्दी हो सके, मुझे गाँव से निकालने वाले लोग/पार्टी? या शायद कुछ ऐसी सोच के लोग भी हो सकते हैं, जिनके लिए गाँव बैठना मतलब, ज़िंदगी और काम-काज से ही सन्यास? या शायद एक परिवार को ही खत्म करने की सोच? भाभी के जाते ही जो ड्रामा शुरू हुआ और जो लोग उसमें लुका-छिपी सी भूमिका में थे या अभी तक हैं, ने एक अलग ही संसार के पाट खोल दिए थे। सबसे बड़ी बात इन लोगों को लग रहा था या शायद कुछ को अब तक लग रहा है, की न इन्हें कोई देख रहा, न सुन रहा; जो रचना है रचो। वो भी एक बच्चे के साथ। कुछ साथ वालों पे तो असर पड़ना ही था। या शायद युं कहें की वो रचना ही एक तीर से कई शिकार वाली कहानी जैसी-सी है। इसमें भी फुट डालो, राज करो अहम है। फोन और WhatsApp यूनिवर्सिटी की उसमें अहम भुमिका नजर आयी। हालाँकि, एक खास स्कूल और उससे जुड़े कुछ इधर-उधर के लोगों के तार भी। क्या खास है उस स्कुल में? और क्या भुमिका हो सकती है, किसी शिक्षण संस्थान की ऐसी घटिया राजनीती में?     

अलग-अलग लोगों के या कहो पार्टियों के अलग-अलग इंटरेस्ट। अब उस स्कूल वाले प्रोजेक्ट का, आप रट्टा लगाना शुरू कर दो और देखो इधर-उधर का तमाशा। यहाँ लोग इतने भोले हैं की जब उनसे पहली बार आमने-सामने बात की जाए, तो कोई खास द्वेष नहीं रखते। क्युंकि शायद उनके अपने दिमाग में द्वेष होता ही नहीं, वो भरा जाता है। बल्कि ये जानकार की शायद उनका भी थोड़ा-बहुत भला हो जाए, साथ होते हैं। मगर, दुबारा जब एक-दो दिन बाद मिलते हैं, तो रफूचक्कर। और इधर-उधर से पता चलता है की ये रफूचक्कर करवाने वाले कौन लोग हैं? इधर-उधर की खास सेनाएँ और राजनीतिक पार्टियाँ? मतलब ये खास किस्म की सेनाएँ या राजनीतिक पार्टियाँ किन्हीं लोगों का भला भी चाहती हैं? या सिर्फ अपने तक सबकुछ हज़म रखना चाहती हैं? और भोले लोगों की ज़िंदगियों को कितना घुमा सकती हैं? 180 के एंगल पे या 360 के? इन्हीं लोगों से आप जब दुबारा मिलते हैं तो पता चले या सुनने को मिले, इस साल नहीं, अगले साल शुरू कर लियो। हाँ! उस स्कूल में 25 स्टुडेंट तो आ ही जाएँगे। ऐसा ज्ञान या गणित किसने पढ़ाया होगा इन्हें? और भी ऐसे-ऐसे, कैसे-कैसे ज्ञान-विज्ञान और राजनीती? और किसी को किसी का कोई प्रोजेक्ट आगे खिसकाने या खत्म करवाने से क्या लाभ हो सकता है? हक़ीकत ये है की ये लोग पिछड़े ही इसलिए हैं की अपने लिए काम न करके, पार्टियों के लिए, वो भी मुफ्त में काम करते हैं। उनके सामान्तर केसों का हिस्सा होते हैं --ज्यादातर अनजाने में, तो कभी-कभी शायद जानकर भी। कभी डर से तो कभी लालच में। इन सामांतर केसों में लालच और डर दोनों अहम् हैं। इसीलिए ऐसे-ऐसे केसों को शायद लोगों ने Reward and Punishment बोला है। और लालच भी कैसे-कैसे हो सकते हैं? जानेगें आगे किसी पोस्ट में।   

इस सबसे क्या समझ आता है? लोग अपनी ज़िंदगी के फैसले भी खुद नहीं लेते? पार्टियाँ लोगों की ज़िंदगी के फैसले लेती हैं? और ये लोग इतनी आसानी से मान भी जाते हैं? क्या हो सकता है उस सबके पीछे? किसी तरह का डर, जरूरी नहीं हकीकत ही हो, आभासी भी हो सकता है। ऐसे ही किसी भी तरह का लालच और जरूरी नहीं सामने वाला लालची ही हो। आभासी दुख-दर्द की तरह डर और लालच को भी बढ़ाया या घटाया जा सकता है।

Tuesday, September 12, 2023

वो भगवान और भूत घड़ रहे हैं

 वो भगवान और भूत घड़ रहे हैं 

और आम-आदमी?

उनकी घड़ाईयों को भुगत रहे हैं  

बस यही फर्क है, विशेष और आम आदमी में

या शायद पढ़े-लिखे शातिरों और 

अन्जान, अज्ञान, आम आदमी में


वो आदमी की मनोस्तिथि घड़ रहे हैं, 

सिर्फ पढ़ और समझ नहीं रहे हैं  

और आम आदमी उन्हें भुगत रहे हैं 

बस यही फर्क है, विशेष और आम आदमी में

या शायद पढ़े-लिखे शातिरों और 

अन्जान, अज्ञान, आम आदमी में   


वो आदमी को इधर-उधर धकेल रहे हैं 

सिर्फ आदमी को?

नहीं, वो जीवों और निर्जीवों को भी 

इधर-उधर धकेल रहे हैं 

जहाँ-जहाँ और जितना उनका बस चले 

और आम आदमी उन्हें भुगत रहे हैं 

बस यही फर्क है, विशेष और आम आदमी में

या शायद पढ़े-लिखे शातिरों और 

अन्जान, अज्ञान, आम आदमी में   


वो डरावे, छल, कपट

या कहना चाहिए की 

साम, दाम, दंड, भेद 

सब प्रयोग कर रहे हैं 

और आम आदमी उन्हें भुगत रहे हैं 

बस यही फर्क है, विशेष और आम आदमी में

या शायद पढ़े-लिखे शातिरों और 

अन्जान, अज्ञान, आम आदमी में   


नज़र दौड़ाओ अपने आसपास 

ज्यादा नहीं तो, थोड़ा-सा ही सही 

पढ़ना, समझना सीखो अपने आसपास को 

नहीं समझ सकते अगर, निर्जीवों के बदलावों को 

तो अपने आसपास के जीव-जंतुओं को 

जानवरों, पक्षियों और पेड़-पौधों को 

जो उनके साथ हो रहा है 

वही, कुछ-कुछ, वैसा-सा ही 

वहाँ के इंसानो के साथ हो रहा है।


जो पानी तुम पीते हो 

जो खाना तुम खाते हो 

जिस हवा में सांस लेते हो 

जिस मिट्टी को अपना कहते हो 

उन सबपे मोहर है 

वहाँ के राजनीतिक कोढ़ की 


स्वास्थ्य उसी की देन है 

बीमारियाँ उसी की देन हैं 

नशेड़ी उसी की देन हैं 

ड्रग्स का धंधा उसी की देन है 

तुम्हारे रिश्ते-नातों पे 

तुम्हारे बाल-बच्चों पे 

उनके जन्मों या मौतों पे 

वो अपनी मोहर ठोक रहे हैं 

और आम आदमी उन्हें भुगत रहे हैं 

बस यही फर्क है, विशेष और आम आदमी में

या शायद पढ़े-लिखे शातिरों और 

अन्जान, अज्ञान, आम आदमी में 


सोचो, भगवान कौन है? 

शातिर पढ़े लिखे इंसानों ने घड़ा इन भगवानों को 

या भगवान ने इंसान और सब जीवों को ?

मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरिजाघर के रचयिता? 

यही शातिर पढ़े-लिखे इंसान 

वेदों, क़ुरानो, बाइबिल, गुरुवाणी के रचयिता?

यही शातिर पढ़े-लिखे इंसान 

उनमें बदलावों और नए युग के नए-नए 

तकनीकों, अविष्कारों के रचयिता?

यही शातिर पढ़े-लिखे इंसान

उनके प्रयोग और दुरूपयोग के रचयिता? 

यही पढ़े-लिखे, शातिर इंसान। 


और आम आदमी?

उनके किए धरों को भुगत रहे हैं 

बस यही फर्क है, विशेष और आम आदमी में

या शायद पढ़े-लिखे शातिरों और 

अन्जान, अज्ञान, आम आदमी में। 


और शायद यही फर्क है 

की इंसान जितना ज्यादा पढ़ता-लिखता है

उतना ज्यादा इस सिस्टम को समझता जाता है  

उतना ज्यादा अंधविश्वासो और भगवान वाले, 

राजनीतिक जालों से दूर होता जाता है। 

मूर्ति पूजा विरोधी, 

मतलब, मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरिजाघर 

जैसी जगहों पे कम ही जाता है या विश्वास रखता है  

डर, डरावों और छलावों से दूर होता जाता है 

क्युंकि, उनके पीछे छिपे राजों को जानता जाता है  


मगर आम आदमी?

उनके किए-धरों को भुगत रहे हैं 

बस यही फर्क है, विशेष और आम आदमी में

या शायद पढ़े-लिखे शातिरों और 

अन्जान, अज्ञान, आम आदमी में। 

दस्तुर कैसे-कैसे, चल रहे बदस्तूर?

दस्तुर कैसे-कैसे, चल रहे बदस्तूर? या बढ़ रहे नई नई तकनीकों के दुरुपयोगों से?  

बीमारियाँ जब कहानियाँ-सी लगें 

जुबाने, जब हूबहू-सा बकें 

रिस्ते जब जमा-घटा, गुणा-भाग 

फाइल्स-सा करें 

वो भी दूर, बहुत दूर, कहीं उन फाइल्स से 

तो मानव रोबोट रचने की प्रकिर्या पे गौर करें 

"दिखाना है, बताना नहीं", कोई खेल नहीं हैं, बल्की घिनौने कांड हैं, राजनीति के। बचो, जहाँ भी बच सकते हो।       

आओ हुबहु रचें? कैसे? कैसे रचती होंगी, ये पार्टियाँ हूबहू (ditto)?

जो मुझे समझ आया (जहाँ नहीं आया, वहाँ आप अपने विचार रख सकते हैं)   

राजनीतिक पार्टियों के कोडों वाले रिश्ते-नाते वो नहीं हैं, जो आम-आदमी के असली ज़िंदगी में है। जैसे इनकी माँ किसी की GF या X हो सकती है और बेटी उस GF का अगला कोई अवतार। ऐसे ही इनके बाप कोई BF या X हो सकता है और बेटा कोई उस बाप का अगला अवतार। राजनीति के नाटकों के खानदान, इन्हीं XYZ के आसपास घुमते हैं। इनके नाटकों में माँ, बहन, बेटा, बेटी, भतीजा, भतीजी और ऐसे ही, कितने ही आम आदमियों की हकीकत की ज़िंदगी के रिश्ते हैं ही नहीं। हाँ XYZ की भरमार हैं। ये इसकी, वो उसकी या उसका और न जाने कौन कहाँ-कहाँ और किसका? 

जबकि, आम आदमी की असलियत की ज़िंदगी में ऐसा कुछ होता भी है तो ज्यादातर केसों में, वो एक वक़्त के बाद अगर खत्म, तो हकीकत में खत्म हो जाता है। उसका फिर उसकी ज़िंदगी से शायद ही कोई लेना-देना रहता हो। कहीं-कहीं तो सालों-साल या Decades तक भी लोगों को पता ही नहीं होता की कौन कहाँ है, क्या कर रहा है या कर रही है। ज़िंदा भी है या मर चुका या मर चुकी। मगर, राजनीति के इन नाटकों के जालों में वो न सिर्फ ज़िंदा रहता है या रहती है बल्की जहाँ हकीकत की ज़िंदगी में है ही नहीं, वहाँ भी ज़िंदगी को प्रभावित करते रहते हैं और तोड़फोड़ तक मचाते रहते हैं। इन्हीं को कहा जाता है, भूतिया प्रभाव

मतलब, भूत राजनीती के, भगवान राजनीती के पैदा किए हुए। ऐसे ही उनके बारे में कहानियाँ भी, राजनीती की घड़ी हुई। डरावे, छल-कपट, राजनीती के बनाए हुए। इंसानों को यहाँ से वहाँ धकेलती है राजनीती। मतलब, कौन कहाँ जाएगा और कौन कहाँ रहेगा, ये भी राजनीतिक पार्टियाँ निर्णय लेती हैं। क्या करेगा या नहीं करेगा, वो भी वहाँ की राजनीती तय करती है। आज के टेक्नोलॉजी के वक़्त में तो और भी बुरे हाल हैं। जो तकनीकें या उन तकनीकों का प्रयोग करने वाले लोग 24 घंटे लोगों को देख सुन या रिकॉर्ड कर रहे हों, सोचो वो इस समाज को कितना प्रभावित कर रहें हैं ? और कैसे-कैसे प्रभावित कर रहे हैं? आम आदमी की तो कोई ज़िंदगी है ही नहीं। वो जीता है इनकी मर्जी से, मरता है इनकी मर्जी से। जो कुछ खाता-पीता है या पहनता है, सब इनकी मर्जी से या कहो इनके घड़े automated, semiautomated या enforced घड़ाईयों की मर्जी से। आम-आदमी अपनी मर्जी से क्या करता है ? कुछ भी नहीं? आप तब तक सोचिए, आते हैं इस विषय पे भी, किसी अगली पोस्ट में, की आप अपनी मर्जी से कितना ये सब करते हैं और कितने धकेले हुए होते हैं? और इन धकेले हुए दुष्प्रभावों से कैसे निपटा जाए?