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Media and education technology by profession. Writing is drug. Minute observer, believe in instinct, curious, science communicator, agnostic, lil-bit adventurous, lil-bit rebel, nature lover, sometimes feel like to read and travel. Love my people and my pets and love to be surrounded by them.

Thursday, June 15, 2023

संस्कृति

कभी-कभी कुछ बातों पे यही नहीं समझ आता की दुख प्रकट किया जाए या गुस्सा ? हंसी या गम? 

जब युनिवर्सिटी छोड़, गावँ की तरफ रूख किया तो कई जगह से सलाह आ रही थी, की सोच-समझ के निर्णय लेना। संघर्ष तो हर जगह होगा। मगर किस तरह का और कितना तुम झेल सकते होऔर कितना उस माहौल में तुम्हे समर्थन करने वाले होंगे, इस पर जरूर गौर कर लेना। बहुत से और भी हैं जो वो संघर्ष चुपचाप झेल रहे हैं। तुम कम से कम वो भड़ास तो निकाल पा रहे हो, चाहे आम-आदमी को जागरूक करने के मकसद के माधयम से ही। बहुतों के पास शायद न इतनी हिम्मत है और न ही ऐसा कोई साधन, शायद। 

एक माहौल में अगर जुर्म होता है तो उसके खिलाफ बोलने वाले होते हैं। और जिसके साथ जुर्म होता है, उसके समर्थन में खड़े होने वाले भी होंगे। दूसरी जगह शायद उल्टा ही हो। समझ भी आ रहा था की ये किस तरह की सोच की तरफ इशारा था। मगर मैंने कौन-सा ज़िन्दगी भर ऐसे माहौल में रहने का निर्णय लिया था। शायद उस वक़्त कोई और रस्ता भी नहीं था। या शायद मैंने किसी और तरफ देखा ही नहीं, रस्ते तो बहुत थे। और शायद बेहतर भी? या शायद, जो लिखाई-पढ़ाई मैं कर रही थी, उस हिसाब से ये जगह जानी-पहचानी और आसान थी।   

हर संस्कृति के अच्छे और बुरे पहलु होते हैं, वैसे ही, जैसे हर इंसान के। कोई भी संस्कृति जड़ नहीं है। वो समय और सहुलियतों के हिसाब से बनती-बदलती रहती है। और होना भी चाहिए। जो कुछ समय के अनुसार नहीं बदलता, वो या तो खड़े पानी की तरह, सड़ांध मारने लगता है या ख़त्म हो जाता है। जैसे इंसान रोज ना नहाये-धोये, घर-आसपास को साफ़ ना रखे, तो वो किसी कुरड़ जैसा हो जाएगा। जहाँ सड़ांध ही सड़ांध होती है। जैसे नदिया-झरनो का पानी लगातार बहता रहता है, तो साफ़ होता है। जोहड़, झीलों, मटकों का पानी, अगर वक़्त-वक़्त पर साफ़ करके, फिर से ना भरा जाए, तो सड़ने लगता है। संस्कृति भी वैसे ही है। संस्कृति इंसानो से है, इंसान संस्कृति से नहीं। जैसे-जैसे इंसान की समझ, जरूरते और रहन-सहन के तरीके वक़्त के साथ-साथ बदलते जाते हैं, वैसे-वैसे ही वो संस्कृति में घुलते-मिलते जाते हैं। 

मुझे याद है, जब 2005 में मेरे छोटे भाई और कुछ और बच्चों ने आसपास लव-मैरिज की थी तो हंगामे और आसपास टिपण्णियाँ किस तरह की थी। बड़े भाई (cousin) ने तो दोनों को स्कूल से ही निकाल दिया था, वो भी अच्छा-खासा धमकाकर। उस वक़्त, भाई-भाभी दोनों उस स्कूल में काम करते थे। साथ वालों को तो जो सुनने को मिला था, सो अलग। उनकी बेइज्जती हो गयी थी शायद? या शिक्षा नामक स्कूली-धंधे पर किसी तरह का असर पड़ने के प्रभावों की वजह से? मतलब स्कूली-धंधे की वजह से कोई cousin अपने ही भाई को बस्ते और आगे बढ़ते नहीं देख सकता था? कैसे रिश्ते थे ये, जो उसके बाद वैसे कभी नहीं हुए। मगर शायद उधर का भी एक पक्ष हो। जिस तरह से इधर-उधर से पैसे इक्क्ठे कर और अपने जेवर तक देकर, बड़ी भाभी ने उस स्कूल की नीँव रखवाई थी। हालाँकि, वक़्त के साथ-साथ, उस स्कूल के भी हिस्से और हिसाब-किताब, घरों जैसे से हो चले थे। वही स्कूल और उसके आसपास घुमती राजनीति, उस लड़की को ही खा गयी, जो अपरिपक्कव किशोरी, इस घर में एक बहु बनकर आयी थी। मगर आज वो इतनी बड़ी हो गयी थी की उस स्कूल के साथ वाली जमीन पे अपना खुद का स्कूल खोलने चली थी? अब भाइयों की जमीनें भी तो आसपास ही होती हैं। अक्सर डौले से डौले मिलते हैं। जैसे घर की छतों से छत। कई केसों में तो घरों के आधे-आधे हिस्से ऐसे होते हैं, जैसे एक-दूसरे का प्रतिबिम्ब। कुछ-कुछ ऐसे, जैसे राजनीतिक-रंगमंच, संस्कृति, प्यार-जुर्म, लठ-गोली, रार-तकरार के बीच, डर और डरावे भी। शोध-प्रतिशोध, अहम्-अहंकार और उसपे भाईचारा भी। कुछ-कुछ, रामायण और महाभारत जैसा-सा? संस्कृति और संगीत जैसे, अपने आप में कितना कुछ गाता-सा? 


आज गांवों में भी उस तरह की टिक्का-टिपण्णियों का उतना असर नहीं रह गया है। जब मेरा या मेरी तरह कुछ और लड़कियों का पहनावा जींस-शर्ट हुआ तो वो कुछ एक अपवाद थे। आज ज्यादातर घरों में वो कोई वाद-विवाद या तकरार का विषय ही नहीं है। पहले गाँवों में शॉर्ट्स नाम का कोई पहनावा नहीं होता था। कोई डाले दिख भी जाता तो कच्छाधारी बोलकर जलील किया था। आजकल शायद उतना टिक्का-टिपण्णी नहीं रह गयी है। हाँ, औरतों के लिए कुछ-कुछ ऐसे घरों में, अभी तक भी घुंघट तक नहीं गया है। ये अपने भाई-भतीजा लोगों के लिए सोचने का विषय होना चाहिए, या नहीं पता नहीं ? सुना है so-called हिन्दुओं में पर्दा-प्रथा नहीं थी। मुस्लिम आये तो हिन्दू औरतों को उठाने लगे। हिन्दू मर्दों से अपनी बहन-बेटियों की रक्षा ना हो पायी तो उन्हें घुन्घट पकड़ा दिए। क्यों भाई-भतीजा लोगो, आज भी ऐसा ही है क्या?

पहले के हिन्दु घरों में जनाना-मर्दाना, अलग-अलग होते थे। कोई जनाना की तरफ जाता भी, तो खाँस के, या किसी का नाम बोलकर, ये बताने के लिए की वो उधर आ रहें हैं। अब बैडरूम-बाथरूमों तक विशेष तरह के कैमरे (camera)  फिट कर, औरतों के विरोध के बावजूद एक्सपेरिमेंट हो रहें हैं? ये कौन-सी संस्कृति है? ऐसा करने वालों के चरित्र कहाँ हैं? ये तो ऐसे नहीं लग रहा की संस्कृति को कुछ राजनीतिक गुंडों ने, अपनी सहुलियत के हिसाब से, अपने कांडों पे परदे डालने के लिए, खुद को बचाने का हथियार बना लिया है? आपको क्या लगता है?   

 चरित्र प्रमाण-पत्र 

इस माहौल में प्यार के किसी भी तरह के इजहार के लिए, आपको न सिर्फ खास तरह की और खास लोगों से अनुमति चाहिए, बल्की चरित्र प्रमाण पत्र भी चाहिए, शायद। लगता है, हरियाणा या हरियाणा जैसे किसी सरकारी स्कूल में प्रवेश कर चुके हैं आप या शायद छोड़ के कहीं और जा रहे हैं? मगर लठैत लोगों को न किसी की कहीं से अनुमति चाहिए और न ही किसी तरह का चरित्र प्रमाण पत्र? वो तो मर्दानगी की निशानी है शायद? उस सबकी वजह से न घर-मौहल्ले का वातावरण खराब होता? न वो सब बिमारियों की वजह होता? न बच्चों पे कोई बुरा असर पड़ता? और शांति या भाईचारा तो कहीं का भंग नहीं होता? आखिर हमारी संस्कृति का हिस्सा है ना ये सब तो?       

पहले हुक्का बैठक तक ही होता था। अब तो वो कहीं भी जा सकता है। बैठकों के बाहर, चबूतरों की शोभा या so-called जनाना तक में। बच्चों या औरतों तक वो धुएँ के गुब्बारे जा रहे हों, ये परवाह तक ना किए बैगर। सुना है, पहले हिन्दुओं में स्वयंवर प्रथा थी? सुना है, देखा थोड़े ही है। आजकल उसकी जगह थोंपो-प्रथा ने अपनी जगह बना ली है क्या? ये एक, दो, तीन, चार जैसा एक्सपेरिमेंटेशन तो ऐसी ही किसी प्रथा का हिस्सा हो सकता है। सुना है, पहले विवाह होते थे, लड़कियों से पुछकर। अब कोई गंधर्व-विवाह के नाम पे टुच्चागिरि-एक्सपेरिमेंटेशन और विडियो मार्केटिंग (Women Trading) ने ले ली है क्या? क्या ऐसी औरतों के कोई अधिकार हैं आपकी इस महान संस्कृति में ? सुप्रीम कोर्ट बता सके शायद? या वो भी कुत्ते-बिल्ली के खेलों में वयस्त है? इंसानों की फ़िक्र करने या उन्हें न्याय देने कोई और आएगा शायद।     

संस्कृति के नाम पे बहुत कुछ घिनौना और विकृत है। खासकर, जब किसी संस्कृति के नाम पे राजनीती होने लगे, तब। राजनीतिक-रंगमंच (Political Theatres) के बड़े-बड़े इंस्टिट्यूट हैं, दुनियाभर की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटीज में। भारत में वो अभी पिछले दशक या कुछ सालों में ही शुरू हुआ है, शायद?  क्या संस्कृति को हम राजनीतिक रंगमंच से देख सकते हैं? या राजनितिक-रंगमंच और संस्कृति अलग-अलग विषय हैं? दोनों को एक करना मतलब, गुड़ का गोबर करना। 

क्या हो अगर राजनितिक-रंगमंच, आम-आदमी की ज़िंदगी का अहम् हिस्सा हो जाएँ?  जानते हैं, अगली किन्ही पोस्ट्स में। 

Tuesday, June 13, 2023

कहाँ हो? ये क्या चल रहा है?

कुछ समझ आए तो मुझे भी बताना। मेरी एक, दो, तीन, चार वालों में ना कभी रुची थी, ना है और ना होने वाली। हाँ। जितना ज्यादा, इस वाले जुए को जानना या समझना शुरू किया है, उतनी ही ज्यादा इससे नफरत जरूर होने लगी है। और इसके दुस्प्रभावों को जानने की उत्सुकता भी। खासकर, जबसे बेहुदा और घिनौने लोगों का लूट, कूट, पीट और खदेड़ बाहर कर का, हर जगह तमाशा समझ आना शुरू हुआ। वो चाहे क्लास में रहा हो, लैब्स में रहा हो। मिटिंग्स में रहा हो। पत्राचार या इमेल्स में रहा हो। रोड पे रहा हो। बाजार में रहा हो। कैंपस घर में रहा हो या अड़ोस-पड़ोस में रहा हो। ऑनलाइन रहा हो। गूगल सर्च में या किसी और सर्च इंजन में रहा हो। यूट्यूब पे रहा हो। इधर-उधर के सोशल मीडिया पे रहा हो। नेशनल या इंटरनेशनल मीडिया में रहा हो। गवर्नमेंट्स या नॉन गवर्नमेंट्स की websites पे रहा हो। 

इन्हीं सब ने शायद मुझे इंटरनेशनल organizations और उनकी websites पे घुमाया। शायद ये जानने के लिए की यहाँ से निकल भी गए तो आगे क्या होगा? क्या चल रहा है वहाँ? कहाँ जाया जा सकता है? स्तर अलग-अलग हैं। किस स्तर को झेलने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी? और कहाँ इस सबसे निकलके आगे बढ़ने के भी अवसर होंगे? और यही खोजते-खोजते, पता नहीं कहाँ-कहाँ पहुँच गई और क्या-क्या पढ़ा या थोड़ा बहुत समझ आया। उसके साथ ये भी, की ये मोदी क्यों उड़ रहा है और ये राहुल गाँधी? ये प्रोग्राम अचानक होते हैं क्या? पढ़ा, यहाँ-वहाँ थोड़ा बहुत कहीं। अब हकीकत तो जानकार ही बेहतर बता पाएंगे।   

हर जगह Grey एरिया नहीं है। कहीं नारंगी है -- जैसे UF, USA? कहीं हरा है, कहीं पीला है, कहीं काला है, कहीं नीला है। तो फिर कहीं सफेद भी है, जैसे Nordic Region? और कहीं न कहीं, उन सबके programms, सिलेबस और रिसर्च भी उसी विचारधारा से, शायद, कुछ न कुछ मिलता जुलता-सा लगता है? कोड जैसे? जैसे मीडिया स्टडीज़ या रिसर्च की ही बात करें तो Screen Media या Smoke Screen कहाँ है ? Digital Communication?  कहाँ whiteboard specility हैं और कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे तारों के जंजाल भी? फाइबर फिल्टर्स कहाँ हैं और रेडिओ या टीवी कहाँ?  AI on focus and related? और IOT का लोटा कहाँ-कहाँ रखा हुआ है? लैब 4 स्पेशल जोन में क्या है? 1, 2, 3 etc. में क्या और कहाँ-कहाँ? Storytellers specialities कहाँ हैं? कहाँ अच्छी-खासी information मिल रही है, बैगर किसी दाएँ-बाएँ के भेदभाव के? और कौन इधर tilted है या उधर tilted है और बहुत ज्यादा prejudiced भी। इसके इलावा भी बहुत कुछ है। ये सब जानकारी उनके लिए जिनके प्रश्न थे, ये चल क्या रहा है और तुम हो कहाँ? 10-15 दिन US,  10-15 दिन यूरोप और ऑस्ट्रेलिया भी। क्यों वक़्त बर्बाद कर रहे हो खामखाँ या कुछ खास मिल गया? मिला कुछ नहीं, बस थोड़ी कोशिश है, थोड़ा बहुत जानने-समझने की।     

यहाँ कबुतर बहुत हैं, अड़ोस-पड़ोस में। उड़ाते रहो, बस उन्हें। एक दिन जाने क्यों उन्हें भगाते हुए कुछ याद आ गया। 

दी, थोड़ा इधर। 

हूँ?

अरे, अब थोड़ा ईधर। 

क्या है?

थोड़ा उधर?

पर क्यों?  

वो कबुतर था सिर पे, उसे हटा रही थी। खामखाँ, बीट कर जाता सिर पे। 

और आप ऊपर देखते हुए, यहाँ कहाँ है?

उड़ा दिया। 

कुछ भी? बच्चों वाली हरकतें। 

अरे मज़ाक कर रही थी।   (R Zone)

I am kinda searching, थोड़ा ईधर, और थोड़ा उधर Zone.                 

Sunday, June 11, 2023

कितने अवतार हैं तुम्हारे?

कितने अवतार हैं तुम्हारे? 

रावण के कितने सिर और हाथ थे? 

संतोषी माँ के? दुर्गा के? काली के?  

और भी कितने ही देवी, देवताओं या राक्षसों के कितने सिर और हाथ हो सकते हैं?  

या शायद शरीर ही बदल सकते हैं ? विष्णु के कितने अवतार हैं, हिन्दु धर्म के अनुसार? या कृष्ण के कितने हैं? शरीर बदलने वाले अवतारों को क्या कहते हैं? छलिया? या कुछ और?

चलो ये तो बड़े-बड़े, देवी-देवताओं की बातें हुई। क्या आम आदमी भी ऐसा कर सकता है? सम्भव है? शायद, वैसे ही जैसे बड़े-बड़े, देवी-देवता कर लेते हैं? इंग्लिश में कुछ शब्द हैं, जैसे  

Alter Reality

Alter Ego

Reality Bending


Warping

Reality Warping: To manipulate Reality 

Operation Warp Speed (Corona), USA 

अंग्रेजी के इन खास शब्दों या इसी तरह के और  शब्दों और इनके करने के तरीकों का जिक्र किन्ही और पोस्ट में।  

हकीकत को बदलना या बदलने की कोशिश करना। 

चलो फिर से नाटकों के किरदारों पे आते हैं। या शायद हकीकत के किसी और वयक्ति पर? क्यों न खुद से ही शुरू किया जाए?  

असली ज़िंदगी में विजय दांगी एक लड़की है। टीचर है, बायोटेक्नोलॉजी में। थोड़ा बहुत लिख लेती है। और आगे की उम्मीद भी लिखाई-पढ़ाई के आसपास ही घुमती है।   

क्या वो या उसके साथ कुछ और जोड़-तोड़-मरोड़ कर कोई और इन्सान या किरदार घड़ा जा सकता है? जो लड़की भी हो सकता है मगर किसी और फील्ड में, बहुत अमीर या उससे बहुत गरीब। जरूरी नहीं आसपास ही हो। किसी दूसरे शहर या दूसरे देश में भी हो सकता है। जरूरी नहीं पढ़ाई-लिखाई के आसपास ही हो। हो सकता है, पॉलिटिक्स में हो। बिज़नेस में हो। खेलों में हो। या किसी और फील्ड में। जरूरी नहीं उम्र, सुरत या कुछ और ही मिलता हो। वो बच्चा भी हो सकता है और बुजुर्ग भी।  और ये भी जरूरी नहीं की लड़की ही हो। वो लड़का भी हो सकता है या ट्रांसजेंडर भी। जैसे ?    

जया?

साध्वी?

प्रियंका?

रिया चकर्वर्ती?

श्री देवी?

गोलु?

विजय मालया?

मायावती?

कविता 

बबिता 

नविता और भी पता नहीं क्या-क्या !

हकीकत क्या है? और घड़े हुए किरदार? कुछ भी मेल नहीं खाता ना? मगर क्या हो आम आदमी असली इंसान की बजाय घड़े हुए किरदारों को उस इंसान पे हकीकत में थोपने लग जाए तो? सोचने को तो कुछ भी सोच लो मगर किसी भी असली इंसान को किसी और का किरदार थोपने से बचे। क्यूंकि थोपने की कोशिश मतलब उस इंसान को कुछ-कुछ वैसा ही बनाने की कोशिश। कभी-कभी ऐसा करना खतरनाक भी हो सकता है या कहो की अक्सर होता है। तो जहाँ तक हो सकता है बचें, किसी पे भी कुछ भी थोपने की कोशिशों से। क्युंकि, ऐसे उदाहरण आसपास भरे पड़े हैं, जिनपे कुछ का कुछ थोपने की कोशिशें हुई हैं या अभी भी हो रही हैं। जिनके परिणामस्वरूप वो जिंदगियाँ तबाह हुई हैं या अभी भी हो रही हैं।    

हर इंसान अलग है, विशेष है। अपने आप में अद्भुत है। वो कोई और हो ही नहीं सकता। और न ही कोई उसका स्थान ले सकता। इसलिए कोशिश हर इंसान की खास विशेषताओं को आगे बढ़ाने की होनी चाहिए। न की उसे कोई और बनाने की।   

Cryptic Women Trading?

 अगर आपको पता चले की कोई आपको धंधे में धकेलने की कोशिश कर रहा है या कर रहे हैं तो आप क्या करेंगे? उसपे पता चले की ये कुछ नया नहीं है, बल्की बहुत पुराना खेल है। 
उसपे पता चले की यहाँ तो defence, judiciary, government, opposition सब लगे पड़े हैं ?
कहाँ जायेंगे आप complain करने?
पिछले कई दिन से कोशिश कर रही हूँ ICICI का ये विडिओ अपलोड करने की    


Cryptic Trading Ways?

बैंक के employee काम करना तो दूर बात ही न करें?
सिर्फ इधर-उधर के धक्के।  

Saturday, June 10, 2023

व्यस्त कहाँ हैं (जुबान, खेल और काम)

गरीब के पास आप गरीब होते जाएंगे, और अमीर के पास अमीर। अब ये गरीबी और अमीरी भी बहुत तरह की हो सकती है। गरीबी दिमागी भी हो सकती है। जैसे धन-दौलत होते हुए भी गरीब होना। और गरीबी सिर्फ संसाधनों की भी हो सकती है। दिमागी गरीब, कम उभर पाते हैं। दिमाग है, तो संसाधनों की कमी, आनी-जानी चीज जैसी भी हो सकती है। या शायद यूँ कहना चाहिए, की बहुत से कारण होते हैं, जो आगे बढ़ाते हैं। ऐसे-ही बहुत से कारण होते हैं, जो पीछे या पिछड़ेपन की तरफ लेके जाते हैं। इनमें अच्छे तरीके भी हो सकते हैं, आगे बढ़ने के और बुरे तरीके भी। मगर पिछे धकेले जाने के सिर्फ और सिर्फ बुरे तरीके होते हैं, शायद।  

आप कहाँ रहते हैं?  

बजरापुर और स्कूलपुरा? 

डंडापुर और  किताबपुरा ?

बदजुबानपुर और मिश्री जुबानपुरा ?

शांती पुर और कलहपुरा ? 

भंडोलापुर और मंडोलापुर?  

गोबरपुर और गुडपुर?  

स्क्रीनपुर और गनपुरा? 

मंगलपुर और मातापुरा? 

रामपुर और रावणपुरा? 

कटी-पतंगपुर और पैरागलाइडरपुरा? 

भुन्डुपुर और सुरत या सुंदरपुरा 

बलपुरा और मनपुरा? 

हरिद्वार या 

लिख ही रही थी की 

कहीं से आवाज आई कबुलपुर? 

अभी इतना ही, बाकी फिर कभी।  

बच्चों के अनोखे खेल

 बच्चों के अनोखे खेल सिर्फ बच्चे ही खेल सकते हैं। 

लक्ष्मणरेखा से यहाँ-वहाँ, बड़े-बड़े गोले बनाओ, चप्पल निकालो और दे पटापट। 

अर्रे, क्यों मार रहा है इन्हें? किसी ने काट लिया ना तो बहुत रोएगा। उठ यहाँ से। 

ये मुझे काटेँगे? अच्छा। और फिर से शुरू, उसी चप्पल से, दे पटापट। आसपास के इकट्ठे हुए मकोड़ों को एक गोल सर्कल में घेरकर मारना। 

लक्ष्मणरेखा, वही चौक, जो कीड़ी-मकोड़ों को भगाने के काम आता है। बच्चों के लिए खेल भी हो सकता है? बच्चे भी कैसे-कैसे खेल इज़ाद कर लेते हैं ना?


अब एक ये भी:

क्या कर रहे हो तुम इतनी देर से उस अलमारी में? क्या मिल गया ऐसा वहाँ?

चुप करो मिल गया, गुस्से में। सबकुछ इधर-उधर पड़ा है। ठीक कर रही हूँ। हर चीज़ अपनी जगह होनी चाहिए। ऐसी अलमारी में क्या मिलेगा? 

मेरी अम्मा, जो जहाँ है, वही रहने दे। नहीं तो मुझे फिर से सब सेट करना पड़ेगा। 

अर्रे, सब वहीँ का वहीँ है। हम तो सिर्फ खेल रहे थे। बस ये, यहाँ से यहां। ये वहां से वहां। ये इधर। ये उधर। और ये थोड़ा-सा इधर। आये बड़े, करना पड़ेगा फिर से सेट। और हाँ ये बाहर भी इतना कुछ फैला रखा है। चलो, ये तुम करो। इसमें भी टाइम लगेगा, दूसरे बच्चे को बोलते हुए। 

Wednesday, June 7, 2023

व्यस्त कहाँ हैं, आप? और इन राजनीतिक-पार्टियों की जान लोगे?

रोचक किस्से, कहानियाँ और सामाजिक घढ़ाईयाँ 

जब गाँव रहने के लिए आई, तो शुरू-शुरू में तो बहुत ज्यादा हैरानी होती थी, उटपटांग पे उटपटांग सुनकर, देखकर, समझकर। वो भी तब, जब अपने आपको पढ़े-लिखे और कढ़े कहने वाले लोगों को, इतने सालों से देख-सुन और भुगत भी चुकी थी। वो उटपटांग यहाँ जब ज्यादा होता लगता था, तो गाड़ी उठाके उड़ जाती थी, उसी जहरीली जगह, जिसको पीछे छोड़ चुकी थी। उसपे, यहाँ के उटपटांग की उस वक़्त समझ भी कम ही थी। क्यूँकि, इस दुनियाँ को इस रूप में कम ही देखा था। 

यूँ लग रहा था, जैसे हर कोई, हर किसी का दुश्मन हो। ये इसका भला भी नहीं चाहता या चाहती, उसका भी नहीं, उसका भी नहीं और उसका भी नहीं। यार, क्या खुंदक हो सकती है? ये तेरे घर वालों के भले में हैं और हर किसी को टांगा हुआ है, छोटी-छोटी बुराईयों को या कमियों को बढ़ा-चढ़ा कर, एक दुसरे को गा-गा कर। ये भी बुरा, वो भी बुरा, वो भी बुरी और वो भी। बच्चों और बुजर्गों तक को नहीं बख्सते। कैसे लोग हैं ये? जबकि, इनके अपने हाल कहीं न कहीं, इस घर से ज्यादा बुरे हैं, ऐसी-ऐसी कमियों पे। अपना नहीं दिखता? और फिर आपको लगता है की खामखाँ ज्यादा सोच रहे हैं। उनके अपने हाल बुरे हैं, शायद इसीलिए, ज्यादा जहरीले हो रहे हैं। मगर फिर समझ आता है, सामाजिक घढ़ाईयाँ। जो ज्यादातर राजनीतिक पार्टियाँ करवा रही है। मतलब, जहर भी वही घोल रही हैं? फुट भी? लोग खुशियाँ भी जैसे छुप-छुप के मनाते हैं? कहीं किसी की नजर ना लग जाए? कितना अजीबोगरीब माहौल है ना? हालाँकि सब एक जैसे नहीं हैं। कुछ खास घरों में ही ये ज्यादा है। तो सीधी-सी बात, राजनीतिक जालों का दुष्प्रभाव भी वहाँ ज्यादा है।              
   
राजनीती के षड़यंत्र ने छलाँगे मारनी शुरू की और लोगों को खाना भी, बिलकुल आदमखोरों की तरह। उस ताँडव को इतने पास से देखना और क्या हो रहा था वो जानना-समझना, किसी भी आम इंसान को हिलाने के लिए काफी था। मगर राजनीती के लिए शायद आम बात। 

एक जिज्ञास्या जो शुरू हुई थी, कहीं न कहीं उस सोशल पोस्ट से शायद, जहाँ कुत्ता ढेरों हड्डियों के पास बैठा है और उसपे लिखा है (जैसे कह रहा हो), ये सब बिल्ली (या बिल्ला) ने किया है। 
कुछ तारीखें, जैसे कुछ कहानियाँ-सी और कुछ बीमारियाँ। सच में बीमारियाँ? बच्चों के बालों का रंग और बनावट (Texture) बदलना। बच्ची को छाती में सीमेंट अटक गया, क्यूँकि घर बन रहा था। बच्चे को एलर्जी हो गई, पाँच साल तक शैंपू या साबुन प्रयोग नहीं करना। ये तो सिर्फ शुरूवात थी, इस अजीबोगरीब जहाँ को जानने-समझने की। इसके बाद तो पता ही नहीं, लोगों को क्या-क्या होते देखा या सुना। उसी जंग में, पढ़े-लिखे और कढ़े हुओं की गुप्त जंग में, एक छोटी-सी बीमारी खुद भी ले आई। बीमारी? या Chemicals Abuse? और कितने ही तो लोग भुगतते हैं, ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे, इन पढ़े-लिखे SMART लोगों को? कहाँ व्यस्त रखते हो, दुनिया को? मतलब खुद भी कहाँ व्यस्त रहते हो? दुनिया को जहर परोसने में और गुप्त तरीकों से मारने-काटने में? इसी को INTELLIGENCE कहते हैं?          
    
सामाजिक घड़ाईयों के सच में छिपा है -- "आप व्यस्त कहाँ हैं?" जब आप किसी को कुछ दिखा-बता या सुना रहे हैं, तो कुछ घड़ भी रहे हैं, खुद अपने लिए और अपने आसपास के लिए।  

इन रोचक किस्से-कहानियों में ही सामाजिक घढ़ाईयाँ छिपी हैं।  
आशीर्वाद आटा 
Happiness Helmet 
Comfort Washing Zone 
डिब्बा-तंत्र 
झंडुलीला 
गिरपड़ रहा है झंडा जैसे। कभी यहाँ, तो कभी वहाँ? 

दण्डातंत्र 
ढ़क्कन-डंडा, जाली पे सफेद पेंट। वैसे क्या संभावनाएं हो सकती हैं, इस सामान्तर घड़ाई की? शायद, फिशिंग वाली घड़ाई तो हो चुकी?   
और AC कट्टा कवर?
 
पंखा स्लेटी, सफेद, गोल्ड या सिल्वर?   
कुलर सलेटी, काला या सफेद? 

भैंसोलोजी 
भैंस ने दूध ना दिया 
दिवास-दूध

रवि-लोजी (Ravilogy): बच्चे को नहीं मालूम, उससे क्या करवा रहे हैं और क्यों? उसे मजा आ रहा है और वो कर रहा है। ये Ravilogy शायद बहुत पुरानी है। और ये हिंदी वाला रवि है या शायद R avi?
   
तेरा दादा, मेरा दादा। मेरा दादा भी, तेरा दादा। वैसे तो कुछ बुरा नहीं, पर ऐसे तो -- Special Kinda Enforcement World 

कितने ही तो लोगों को तो काम पे लगाया हुआ है? बताओ और इन राजनीतिक पार्टियों की जान लोगे, अब तुम? राजनीतिक पार्टियाँ आपको मुफ्त में, वो भी उल्टे-पुल्टे कामों पे रखती हैं।  

एक होता है संवाद करना और एक लोगों को विवाद या झगड़े पे लगा देना। एक होता है, कोई ढंग का काम देना या बच्चों को खासकर, खेल-खेल में कुछ सीखने को देना। और एक होता है, उल्टे-पुल्टे कामों में लगा देना। तो जिंदगी क्या होंगी उनकी?
  
Process of Dehumanization of a Society     

सत्ता और सामाजिक व्यवस्था?

सत्ता और सामाजिक व्यवस्था  (Governance, System, Files, Ordinance, Revolving or Fighting Chairs)  

क्या कोई फाइल्स की खिंचतान कुछ ट्रेनों के एक्सीडेंट की वजह हो सकती है? पता नहीं। मगर So Sorry जैसी सीरीज हमारे सिस्टम और गवर्नेंस के बारे में जरूर काफी कुछ बताते हैं। 

क्या किसी की PPF ट्रांसफर एडजस्टमेंट या सर्विस और यूनिवर्सिटी आर्डिनेंस, दिल्ली में CM और LG के बीच की विवाद की वजह हो सकते हैं? या ओडिशा में किन्ही रेलों के हादसे की?

मालूम नहीं। आपको क्या लगता है?







क्या सत्ता का मतलब सिर्फ सट्टा बाजार है ?
तो जो वो इलेक्शन का ड्रामा होता है, वो क्या है ?
और crypts में सट्टा या खुलेआम बोली कैसे लगती है?

ज्यादा तो अपनी समझ अभी तक आया नहीं, लेकिन जितना आया, वो तो आम लोगों के साथ बाँटा ही जा सकता है। अगली किन्हीं पोस्ट में।  

व्यस्त कहाँ हैं? (सफल-असफल?) 3

एक और माहौल लेते हैं और जानते हैं की कुछ खास तरह के सफल या असफल लोगबाग व्यस्त कहाँ हैं? 

विकसित, मतलब ज्यादा पढ़े-लिखे देशों की ज्यादातर बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ दिमाग वालों के हवाले मिलेंगी। टेक्नोलॉजी की दुनियाँ, जो दुनियाँ पे राज करती हैं, अपनी टेक्नोलॉजी की ही वजह से। और दुनियाँ भर के बेहतरीन दिमागों को अपने यहॉँ काम करने के लिए आकर्षित भी करती है। ज्यादा पैसा और सुख-सुविधाएँ देकर। हालाँकि, वहाँ भी बहुत तरह के वाद-विवाद हो सकते हैं। क्यूंकि, हर चीज़ के दो पहलु होते हैं। 

जहाँ शिक्षित वर्ग है वहां पथ्थर, रोड़े, खूंटे या खूंटी नहीं, महाबली, बजरंग जैसी blockchain मिलेंगी। ऐसी बाधाएं, जो किसी भी तरह से सामने वाले को आगे बढ़ने से रोक सकें। महाबली, बजरंग जैसे नाम अशिक्षित या कम पढ़े-लिखे वर्ग को जाल में फंसाने के लिए। जाल Fishing जैसे भी हो सकते हैं। जैसे किसी पड़ौसी की खिड़की पे काली डोरी को कांटे की तरह टांगना। आम आदमी की भाषा में। ये यहाँ सिर्फ "दिखाना है, बताना नहीं।" इसके पीछे के कारनामों या जुर्मों को। मतलब, ये सामाजिक सामान्तर घड़ाई है, जिसमें राजनीती गुप्त तरीके शामिल है। उसके असली मतलब या जुर्म को समझने के लिए विज्ञान का सहारा लेना होगा। तभी तो राजनीतिक विज्ञान बनेगा।राजनीती को, विज्ञान वाले जुर्मों या कर्मों को, सामान्तर सामाजिक घढ़ाईयों के साथ, जोड़ने-तोड़ने और मरोड़ने का, जो जाल या ताना-बाना है, उसमें तकरीबन सब तरह के विषय, जीव-निर्जीव और सामाजिक श्रेणियाँ आ जाती हैं। रंक से लेकर राजा तक। कीड़े-मकोड़े से लेकर, इंसान तक। पेड़-पौधे, पक्षी, रेंगने वाले जीव-जंतुओं से लेकर, पानी और पृथ्वी दोनों पर रहने वाले भी। आपके घर और आसपड़ोस से लेकर बगीचों-पार्कों तक, खेतों से लेकर जंगलों तक। सुई-धागे से लेकर हवाई-जहाज तक। और भी वो सब, जो कुछ भी आप अपने आसपास देखसुन सकते हैं या अनुभव कर सकते हैं। है ना कितना अजीबो-गरीब ये राजनीतिक विज्ञान का ताना-बाना? और हम सोचते हैं, हमारा राजनीती से क्या लेना देना? हमें तो ये पसंद ही नहीं। ना कोई इसमें हमारे घर या आसपास से। और फिर भी हमारी ज़िंदगी के हर पहलु को ये प्रभावित करती है। इसीलिए कुछ भी लेना-देना हो या ना हो, कम से कम, कुछ हद तक तो समझाना जरूरी ही नहीं, बल्की बहुत जरूरी है। 

चलो थोड़ा विज्ञान और टेक्नोलॉजी से शुरू करते हैं। किसी ने कहा की, "कोई भी आपकी ज़िंदगी में न तो अपने आप आता है और न ही अपने आप जाता है। उसका एक खास मकसद होता है। वो मकसद पूरा हुआ और वो इंसान भी।" आप सोच में पड़ जाएँ की भला इसमें क्या खास है? लगे दार्शनिक बातें झाड़ने। खासकर, जब तक हमें उस दुनियाँ की खबर नहीं होती जो ये सब करती या करवाती है। Migration, वो भी जबरदस्ती? आप कब तक कहाँ रहेंगे और कहाँ नहीं। ये आपका पसंद-नापसंद का विषय ही नहीं है। बल्की, किसी खास जगह पे आपको परोसा क्या जा रहा है और कैसे, वो विषय है। अपने आसपास से इधर-उधर गए हुए या आए हुए लोगों को जानने की कोशिश करोगे तो शायद समझ आ जाए। थोड़ा-सा समझ आने लगेगा, तो शायद थोड़ा बहुत सावधान भी रहने लगोगे, कुछ खास तरह के लोगों से और जगहों से। कौन बच्चों के आसपास नहीं फटकना चाहिए और कौन घर के या आसपास के मौहल्ले के भी। और कौन वहाँ के लिए सही हैं। मगर ज्यादातर इंसान अपने आप बुरे नहीं हो जाते। बहुत से केसों में उन्हें धकेला जाता है, बुरा बनने के लिए। हालाँकि सभी केसों में नहीं। और धकेला ऐसे जाता है, की वो सब तकरीबन अद्रश्य होता है। इसीलिए, कितनी ही सामाजिक सामान्तर घढ़ाईयाँ, यहाँ-वहाँ देखने को मिलती हैं। अलग-अलग लोग, अलग-अलग विचार, अलग-अलग जगहें, अलग-अलग केस। मगर फिर भी लगे, जैसे एक जैसे-से। एक जैसे-से, ना की एक। 

टेक्नोलॉजी को थोड़ा जानने-समझने लगोगे तो पता चलेगा, कितनी ही तो खामियाँ हैं इन घढ़ाईयों में। और सबसे बड़ी बात। इन इतने पढ़े-लिखे और विकसित कहलाने वाले लोगों ने भी दुनियाँ को व्यस्त कहाँ किया हुआ है? और क्या ये खुद कर रहे हैं, इतने सारे resources के दोहन से? चलो थोड़ा-सा ऐसी-ऐसी टेक्नोलॉजी को समझना शुरू करते हैं, जो आम इंसान को बेवकूफ बनाती है। 

आओ थोड़ा जादू देखें? जादू मतलब चालाकी (trick) । जिसके पीछे विज्ञान है। आप जो देख रहे हैं, जरूरी नहीं वो सच ही हो। भूतकाल का जो कल्पित विज्ञान (Sci-Fi) है, वो आज की हकीकत भी हो सकता है। या कहो की ज्यादातर ऐसा ही हो रहा है। जैसे कल कोई सोचता की पानी के नल को खोलने या बंद करने की जरूरत ही ना पड़े। हाथ नल के नीचे किए और पानी आ गया। हाथ हटाए और पानी गया। लाल निशान वाले नल के नीचे हाथ किए तो गर्म पानी आ गया। हरे या नीले संकेत वाले नल के नीचे हाथ किए तो ठंडा। ऐसे ही साबुन के डिब्बे के नीचे जितने देर हाथ किए, उतना साबुन, शैम्पू, या डिश वॉशर  आ गया। Sanitiser के डिब्बे के नीचे जितनी देर हाथ किए उतना ही Sanitizer आ गया। दरवाजे के पास गए और दरवाजा अपने आप खुल गया। आप अंदर गए और दरवाजा अपने आप बंद हो गया। शावर के नीचे गए और पानी अपने आप आ गया। गर्म शावर के नीचे गए तो गर्म और ठन्डे के नीचे गए तो ठंडा। कोमोड के पास गए और उसका ढक्कन अपने आप खुल गया गया। आप उठे और अपने आप बंद हो गया। आपके बिना हाथ लगाए फ्लश भी हो गया। जादू है क्या ये कोई?

ऐसे ही आपके ड्राइंग रूम से लेकर रसोई घर, शयन कक्ष, खेती-बाड़ी, गाड़ी और अन्य वाहनों में भी कितना कुछ अपने आप होता है या सोचो की हो सकता है? ऐसे ही स्कूल-विद्यालयों और  हॉस्पिटलों में। तरह-तरह के व्यवसायों के automation का तो पूछो ही मत। बहुत-सी दुनियाँ है, जिसे ये सब ना सिर्फ मालूम है, बल्की अपने रोजमर्रा के काम में इसे उपयोग भी करती है। तो आज भी दुनियाँ का एक बहुत बड़ा हिस्सा, इसे जादू मान सकता है। या मजाक की तरह ले सकता है। उन्हें नहीं मालूम की ये सब हकीकत है और इसके पीछे है विज्ञान। चलो यहाँ तक तो फिर भी सही है। आप चिल्लाने लगें की शातीर, धूर्त, चालाक पढ़े-लिखे और उसपे कढ़े हुए लोग, आम आदमी की जिंदगी से खेल रहे हैं। उन्हें मानव रोबॉट बना रहे हैं। क्या होगा? वही शायद जो हो रहा है? वो ऐसे इंसानो को बिल्कुल खत्म ना कर पाएँ तो इधर-उधर अवरोध खड़े कर, यहाँ-वहाँ तो खिसका ही सकते हैं। 

आम लोगों की समझ के लिए, चलो, ऐसे-ऐसे टेक्नोलॉजी के जादुओं को ABC से समझना शुरू करते हैं। जो आपकी ज़िंदगी को अदृश्य तरीकों से प्रभावित कर रहे हैं, वो भी बुरे के लिए। यहाँ सफल कहे जाने वाले लोग, असफल कहे जाने वाले लोगों की ज़िंदगियों को और कठिन बना रहे हैं। बजाए की उनमें कोई अच्छा बदलाव लाने के। और शायद दुनियाँ के इतने बड़े हिस्से के, कहीं न कहीं पिछड़ेपन की वजह भी यही हैं। तो फर्क क्या पड़ता है, की आप सफल हैं या असफल हैं? आप व्यस्त कहाँ हैं, और दुनियाँ पे अपनी किस तरह की छाप या प्रभाव छोड़ रहे हैं? वो दुनियाँ, आपका आसपास भी हो सकता है, थोड़ा दूर भी और दुनियाँ का दूसरा कोना भी।        

व्यस्त कहाँ हैं? (सफल-असफल?) 2

ये सफल-असफल से बहुत दूर के प्राणी हैं। हट्टे-कट्टे होते हुए भी लाचार, बेकार, अपाहिज जैसे। वयस्क होते हुए रोजमर्रा के कामों के लिए भी, दूसरे पे निर्भर। जानवरों और पक्षियों से भी कमतर। इंसान ही न रहें जैसे। पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े भी अपना पेट  भरने लायक तो कर ही लेते हैं और घर भी बना लेते हैं। मगर इस किस्म के खास प्राणी, वो भी नहीं कर पाते। बेचारे जैसे। 

ये वो किस्में हैं, जो घर की औरतों के कहीं जाने पे भुखे मर सकते हैं, मगर बना के नहीं खा सकते। चाहे पूरा दिन ठाल-म-ठाल हों। इन बेचारों की परवरिश खास-म-खास होती है, जो इन्हें ऐसा बना देती है। क्यूंकि पशु-पक्षी भी अपने बच्चों को खाने का बंदोबस्त करना तो कम से कम सीखा ही देते हैं। मगर पता नहीं ये कौन से रीती-रिवाज या सामाजिक प्रथा है, जो आज तक अपने लड़कों को इतना तक नहीं सीखा पाती। या शायद रीती-रिवाज़ के नाम पे बहाना।  

एक खास सोच, पुरुष-प्रधानता। जो बहुत जगह लड़को को लड़कियों से ज्यादा खास बनाती है या अधिकार देती है। ऐसे समाज में इन खास लड़कों के रस्ते का रोड़ा भी, वही सोच बनकर खड़ी होती है। वो कहते हैं ना, की हर चीज के दो पहलु होते हैं। लड़कियाँ छोटी-सी ही उम्र में जहाँ, पढ़ाई के साथ-साथ, घर का और अपना काम भी, अपने आप करने लग जाती हैं। तो ये खास परवरिश वाले लड़के, इतने दूसरे इंसान पे आश्रित होते जाते हैं, की उस घर की औरतें, अगर एक दिन भी कहीं बाहर चली जाएँ, तो बेचारे भूखे मर जाते हैं। पता नहीं, इसमें वो कौन-सा ईज्जत कमाते होते हैं? हट्टे-कट्टे होते हुए, अपाहिज़ जैसे। एक तरफ अपाहिज़ भी, अपने सम्मान के लिए काम करते मिलेंगे। और दूसरी तरफ, ये पुरुष-प्रधान समाज के मर्द? नीरे निठल्ले, कामचोर, लुगाई-पताई करते। उसपे भारी-भरकम शब्दों को ढोते गँवार जैसे, और कहते खुद को मर्द। मुझे तो मर्द शब्द ही जैसे, घिनौना लगता है, वैसे ही जैसे साहब। जैसे फद्दू होते हुए, तानाशाह होना? या शायद तानाशाह का मतलब ही लठ के बल या फद्दू ही होता है? जिनमें भेझे की कमी होती है? क्यूंकि तानाशाही, खासकर, लठमार वहाँ होती है, जहाँ सामने वाले को दिमाग की सूझबुझ से मना लेने की क्षमता नहीं होती?

ऐसे लोग ज्यादातर उल्टे-सीधे कामों में लगे मिलेंगे। खुद को ही नहीं, बल्की अपने आसपास को भी पीछे धकेलते जैसे। ऐसा भी नहीं की ऐसे लोगों में कोई गुण नहीं होता या कोई भी अच्छाई नहीं होती। बेवजह की अकड़ और खास किस्म के माहौल की देन, उन्हें आगे बढ़ने ही नहीं देती। ठाली की इधर-उधर की बैठकों में या गली-चौराहों पे, दूसरों की बुराईयाँ करने या लुगाई-पताई करने के लिए ठाली जैसे। न कुछ करने को, न कुछ सीखने को। तो किसी को सीखाने को भी क्या होगा ? इन्हीं में से कुछ उल्टे-सीधे कामों में या तोड़फोड़ में शामिल मिलेंगे। जो कोई कमा नहीं सकता, उसे भला तोड़ने-फोड़ने का अधिकार किसने दिया? सबसे बड़ी बात, तोड़फोड़ ज्यादातर वही करते मिलेंगे, जो सीधे-रस्ते कमाना नहीं जानते। जिन्हें कमाना आता है, उन्हें मालुम है की उस सबके लिए मेहनत के इलावा कोई दूसरा रस्ता नहीं होता। 

अब जो तोड़फोड़ में शामिल नहीं होंगे, वो क्या करते मिलेंगे? कुछ न कुछ बनाते, सजाते, सवांरते, अच्छा करते या आगे बढ़ते और बढ़ाते। हाँ। इतना फर्क हो सकता है की किसी माहौल में कम करके भी ज्यादा मिलेगा। और कहीं बहुत मेहनत करके भी रुंगा जैसे। ये निर्भर करता है, की वो कैसे माहौल से और लोगों से घिरे हुए हैं। अगर किसी को लग रहा है, की बहुत मेहनत करके भी, कुछ खास नहीं मिल रहा, तो माहौल बदलना होगा। और कोई चारा नहीं। नहीं तो जो है, उसी में खुश रहना सीख लो। यहाँ महज़ बच्चे पैदा करने की फैक्ट्री बनना से मतलब, सफल होना नहीं है। इसीलिए पहले ही लिखा है की अलग-अलग लोगों के और अलग-अलग समाज के सफलता और असफलता के पैमाने भी अलग-अलग हो सकते हैं। मगर ठीक-ठाक जीने के लिए, अपनी आम जरूरतों तक को पूरा न कर पाना, जरूर असफलता है। सिर्फ ऐसे तबकों या इंसानो की ही नहीं, बल्की उस समाज की भी। एक और आम बात जो यहाँ सुनने को मिलेगी, वो ये की लड़कियाँ तो यहाँ फिर भी सफल हो जाती हैं या कम से कम कोशिश तो कर ही रही होती हैं, इन सांडों (लड़कों, यहाँ जुबाँ ही ऐसी है, बहुतों की, शायद इसीलिए लठमार बोली कहा जाता है) का क्या करें। यहाँ भी लड़के और लड़कियों के माहौल को जानने की कोशिश करेंगे, तो काफी कुछ समझ आएगा। 

कम पढ़े-लिखे होने का मतलब असफल या फेल होना नहीं होता, जो अक्सर हमारे समाज में बताया या सिखाया जाता है। जो कम पढ़े-लिखे हैं, वो भी नकारा या कामचोर नहीं होते। कम पढ़ाई का मतलब, बेकार होना भी नहीं है। ज्यादातर कम पढ़े-लिखे, बड़े-बड़े व्यवसायों और कंपनियों के मालिक मिलेंगे और ज्यादातर ज्यादा पढ़े लिखों को काम पर रखे। विडम्बना (Irony)? खासकर, कम विकसित देशों में। यहाँ ज्यादातर राजनीतिक नेताओं के भी यही हाल मिलेंगे, खासकर पुरानी पीढ़ी के। तो आपका पढ़ा-लिखा होना या ना होना सफलता या असफलता की निशानी हो भी सकता है और नहीं भी। मगर हट्टे-कट्टे होते हुए अपाहिजों की तरह जीवन व्यतीत करना जरूर असफल होना है। कम पढ़ा-लिखा इंसान मतलब, पढ़े-लिखों से किसी खास विषय में थोड़ा कम आता हो या उस विषय का ज्ञान ना हो। जो पढ़ते हैं, उन्हें भी सब कहाँ आता है? बहुत से विषयों में वो भी अनपढ़ों जैसे ही होते हैं। जैसे किसी की पढ़ाई बायोलॉजी या हिंदी में हो, तो भी कानून में तो वो इंसान भी अनपढ़ ही होगा। मगर हमारे समाज में कम पढ़ा-लिखा होने का मतलब, शायद असफल होने की मोहर लगाने जैसा-सा है। कम पढ़े-लिखे भी न सिर्फ एक-दूसरे का काम बाँटते हैं, बल्की अपने सारे काम भी एक उम्र के बाद खुद करते हैं। छोटा-मोटा, जैसा-भी काम मिले, उसे करके न सिर्फ अपना काम चलाते हैं। बल्की कभी-कभार जरूरत पड़ने पे, आसपास के भी काम आते हैं। ये ज्यादातर वो लोग होते हैं, जिनके लिए कोई भी काम, छोटा या बड़ा नहीं होता। कोई भी काम औरत या मर्द का नहीं होता, जब तक उसमें प्राकृतिक जेंडर वाली बाधा नहीं है। 

वो जो आपके यहाँ साफ-सफाई करने आते हैं। वही, जिन्हें आप हीन भावना से देखते हैं। वो ऐसे-ऐसे नकारा और अपाहिजों से बेहतर हैं। वो जो आपके खेतों में मजदूरी करते हैं। वो जो रहड़ी या खाने-पीने के सामान का ठेला लगाते हैं, दो पैसे कमाने के लिए। अपना और अपनों का गुजारा करने के लिए। वो जो बिजली का, प्लम्बर का काम करते हैं। वो जो तरह-तरह की दुकाने सजाए बैठे हैं। वो जो इमारतें बनाते हैं, कपड़े सिलते हैं, नाई का काम करते हैं। और भी कितनी ही तरह के छोटे-मोटे काम करते हैं। कोई भी काम छोटा नहीं होता। उसको करने या देखने का नज़रिया छोटा हो सकता है। और ऐसे काम करने वाले लोग, किसी भी ठाली और उसपे यहाँ-वहाँ बकवास करते, हट्टे-कट्टे होते हुए भी अपाहिजों जैसों से, बहुत बेहतर हैं। हालाँकि ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे, हट्टे-कट्टे  अपाहिजों का भी ईलाज है। उन्हें थोड़ा उनके सिकुड़े जहाँ से बाहर की जानकारी देकर या सैर करवाकर। थोड़ा-बहुत काम-धाम सीखाकर। इनमें से भी बहुत से चल निकलेंगे, शायद।