व्यस्तता
आप कहाँ व्यस्त हैं? मनोदशा काफी हद तक इस पर निर्भर करती है की आप व्यस्त कहाँ हैं? कोई काम कर रहे हैं, जो आपको आगे बढ़ा रहा है? कुछ नया सीखा रहा है, जो आपकी ज़िंदगी पर किसी भी रूप से सकारात्मक प्रभाव छोड़े या नकारात्मकता की तरफ धकेल रहा है? आप जो कर रहे हैं वो आपको, आपके परिवार और समाज को क्या बाँट रहा है? आपकी ज़िंदगी और आसपास के माहौल को सुकून, सुख और शांति की तरफ चला रहा है, या अशांती की तरफ धकेल रहा है?
आत्मनिर्भरता
आत्मनिर्भरता, किसी भी तरह की, इस सबमें अहम भूमिका निभाती है। आत्मनिर्भरता आपको संतुलित रखती है। वो विरोधाभास वाले माहौल और परिवेश में भी आपको लड़खड़ाने नहीं देती। आप या आपका परिवार और आसपास का समाज आत्मनिर्भर है, तो बाहर की तरफ किसी भी तरह की सहायता के लिए, कम ही देखेगा। वो आत्मनिर्भरता मानसिक भी हो सकती है और आर्थिक भी। और भी कई तरह की हो सकती है। जैसे की कोरोना के बंद के दौरान देखने को मिली। जिस परिवार या समाज के पास ये नहीं होता, वो ज्यादातर बाहर की तरफ देखता है। उसकी ज़िंदगी, उस बाहर के अनुसार ही पलती, ढलती और चलती है। जैसे बड़े-बड़े देशों पर, छोटे देशों की निर्भरता। अगर वो बाहर अच्छा है, तो ज़िंदगी भी अच्छी होती है। और अच्छा नहीं है, तो ज़िंदगी भी अच्छी नहीं होगी। इसीलिए कहते हैं, की इंसान पर उसके माहौल और उसकी संगति का, बहुत असर पड़ता है।
राजनीती
किसी जगह की ज़िंदगियों और समाज को वहाँ की राजनीती भी काफी प्रभावित करती है। इससे फर्क नहीं पड़ता की आपकी राजनीती में कोई रूची है की नहीं। उससे कोई लेना-देना है की नहीं। फिर भी, राजनीतिक पार्टियों का और राजनीती का आपसे लेना-देना है। क्यूंकि, राजनीती का हर जगह की कुर्सियों से लेना-देना है। वो कुर्सियाँ, फिर चाहे मंदिर-मस्जिद की हों, या मेडिकल की। किसी शिक्षा संस्थान की हों, या फिर फौज की। बाजार की समिति की हों, या फिर सरकार की। इसलिए राजनीतिक माहौल का भी, हर इंसान और समाज की मानसिक दशा पर प्रभाव पड़ता है।
मीडिया
आप क्या देख और सुन रहे हैं? टीवी पर, रेडिओ पर, इंटरनेट पर, अखबारों में, खबरों में, नाटकों में, सिनेमा में या ऐसे किसी और माध्यम से। बड़ी से बड़ी MNC से लेकर, छोटे-मोटे सोशल मीडिया पेज तक, आपकी मनोस्थिति घड़ने का काम करते हैं। किसी भी विषय के बारे में, आपके विचारों को दिशा देते हैं। मतलब मनोस्तिथि घड़ते हैं।
बहुत बार आप वो खरीदते हैं, जो आपको पसंद नहीं होता और एक वक़्त के बाद उसी को पसंद करने लगते हैं। इसमें किसी भी वस्तु के रंग से लेकर, उसके डिजाईन तक हो सकते हैं। उत्पाद बेचने वाली कम्पनियाँ, आपकी पसंद-नापसंद ना देख, पसंद-नापसंद घड़ने का काम करती हैं। ये कम्पनियाँ, ऐसे-ऐसे उत्पाद बेचने में सक्षम होती हैं, जो बहुत अच्छे नहीं होते। मगर जिनमें कंपनियों को काफी फायदा होता है। हालाँकि, खरीदने वाले का नुकसान होता है और उसे खबर तक नहीं होती। सब तकनीकों के प्रयोग और दुरूपयोग से।
मीडिया ज्यादातर प्रोपेगंडा रचता है, इस पार्टी का या उस पार्टी का। उसे फर्क नहीं पड़ता, आम आदमी पे उसका असर कैसा पड़ रहा है। ऐसा ही राजनीतिक पार्टियाँ और इनकी गुप्त-गुफाएँ या शाखाएँ, आम-आदमी का फद्दू बनाने में रहती है। ऐसे तरीके और तकनीकें, राजनीतिक सामान्तर घढ़ाईयोँ में भी प्रयोग और दुरूपयोग होते हैं। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे कहीं कोई एक्सीडेंट के बाद बिस्तर पर पड़ा हो और हिलडुल तक ना सकता हो। और कहीं दूर, कोई हमबिस्तर सामान्तर घड़ाई चल रही हो। मेडिकल छुट्टियाँ खत्म होने के बाद भी, तकरीबन एक साल आपकी फिजियो और Cycling हो, फिर से, अच्छे से चलने-फिरने के लिए। आपका भांजा-भांजी आपको ऑफिस छोड़ते हों, या लेने जाते हों। स्कूल जाने वाला बच्चा (भांजा), आपकी मदद के लिए आपके पास रहता हो और पता चले कहीं दूर, live-in सामान्तर घढ़ाईयाँ हो रही हों। गाँव में आने के बाद, कैसे-कैसे लोगों के अजीबोगरीब किस्से-कहानियाँ, राजनीतिक सामान्तर घड़ाईयों के सुनने-समझने को मिले। यही नहीं, कुछ लोगों के दिमाग की प्रोग्रामिंग ही आपके खिलाफ, इतने भद्दे तरीके से हो रखी हो, की आपको समझ ही नहीं आए, की इस घड़ाई का, या उस घड़ाई का, मेरे से क्या लेना-देना? या ये सब कैसे मिलता-जुलता है? और फिर इधर-उधर से पता चले, की लोगबाग हकीकत की ज़िंदगी नहीं, राजनीतिक रंगमंच के किस्से-कहानियों वाली ज़िंदगियाँ जी रहे हैं। उन्हें हकीकत जानने में कोई रुचि ही नहीं है। एक अलग ही दुनियाँ है, जिसमें वो रहते हैं। इसीलिए इतनी आसानी से बेवकूफ बन रहे हैं। यही "दिखाना है, बताना नहीं", का सच है। जिसमें गुप्त क्या है, या गुप्त तरीके से जुर्म कैसे रचे जाते हैं, वो नहीं बताना। ऐसी-ऐसी सामान्तर घड़ायों से निकालने के लिए या बचाने के लिए, हकीकत दिखाना और बताना जरूरी है। जैसे ही वो दिखाना और बताना शुरू हुआ, वैसे ही दुनियाँ भर में राजनीतिक ताँडव शुरू हो गया। आखिर ऑफिसियल डाक्यूमेंट्स, ऑफिसियल होते हैं। यहाँ-वहाँ से, कही-सुनी, दूर-दराज की बाते नहीं।
शायद ऐसे ही जैसे, कहीं कोई नौकरी से resign (enforced resign) के बाद, घर बैठकर कैंपस-क्राइम-सीरीज या सामाजिक सामान्तर घढ़ाईयोँ पे, किताब लिख और छाप रहा हो। और दूर कहीं, किन्ही घर वालों या भाइयों द्वारा, लड़कियों की खरीद-प्रोक्त और पैसों के लेन-देन के किस्से और सामान्तर घढ़ाईयों को मीडिया आम जनता को परोस रहा हो। जैसे पहले भी बहुत बार कहा, की सामान्तर केसों में अक्सर, बढ़ाना-चढ़ाना, तोडना-मरोड़ना, और भद्दे से भद्दे रूप में पेश करना या ला छोड़ना होता है। वो सब हकीकत के आसपास हो भी सकता है, और हो सकता है, बहुत कुछ ना मिलता हो। या शायद, एकदम नई सामान्तर घढ़ाईयाँ हों।राजनीतिक पार्टियों या मीडिया को कोई फर्क नहीं पड़ता, की ऐसी-ऐसी सामान्तर घढ़ाईयों का उन असली की ज़िंदगियों पे क्या प्रभाव पड़ता है। राजनीतिक पार्टियों और मीडिया का तो ये काम है। आम इंसान को खुद को, इन सबके दुष्प्रभावों से बचने के लिए जागरूक होना होगा।
अगर आप अपनी और अपनों की ही ज़िंदगी में व्यस्त हैं, और आत्मनिर्भर भी हैं, तो बाहरी तत्वों के दुस्प्रभाव कम होते हैं। वो फिर राजनीती हो या मीडिया की घढ़ाईयाँ और उनके दुस्प्रभाव। लेकिन अगर आप राजनीती और मीडिया के जाले में हैं, और अपनी या अपनों की ज़िंदगी से कोई लेना-देना ही नहीं है, तब तो कौन बचा सकता है? ये वो घर या अपने होते हैं, जहाँ आपस में आना-जाना, मिलना-जुलना या बोलचाल ही कम होती है। अपनों की खबरों के लिए भी, बाहरी सहारे होते हैं। एक-दूसरे के काम आना तो दूर। मतलब, आपको ना मीडिया की समझ है, और ना ही राजनीति की, इसीलिए उनके जालों में हैं। ये तो थी बड़ी-बड़ी चीज़ें, जो मानसिक दशा को प्रभावित करती हैं, या घड़ती हैं।
उसके बाद आती हैं, बहुत ही छोटी-छोटी चीज़ें या बातें, जो मानसिक दिशा घड़ती हैं। आते हैं उनपे अगली पोस्ट में।
No comments:
Post a Comment