हकीकत की दुनियाँ?
आभाषी दुनियाँ?
मिथ्याभाषी दुनियाँ?
और खिचड़ी दुनियाँ?
और भी पता नहीं कैसी-कैसी दुनियाँ?
जैसे हकीकत के जीव, फोटोजीव, विडियोजीव? और भी पता नहीं कैसे-कैसे जीव?
चलो इसे थोड़ा अपने नेताओं के सफाई अभियान से समझते हैं।
कुछ लोग होते हैं जो सही में सफाई पसंद होते हैं। कुछ दिखावे के सफाई पसंद होते हैं। दिखावे वालों को हकीकत की इमेज से ज्यादा, शायद सामाजिक इमेज ज्यादा पसंद होती है। अब इमेज के अपने फायदे-नुकसान हैं। तो बनाने में क्या जाता है? जैसे एक झाड़ू उठाओ, थोड़ा सफाई करते फोटो करवाओ और दुनियाँ को दिखाओ। देखो कितना सफाई पसंद लोग हैं। या गरीबों को दान-दक्षिणा दो और फोटो करवाओ या विडियो बनाओ और डाल दो ऑनलाइन। कितने दयालु लोग हैं? पब्लिक जगहों को साफ़ करने वाले लोग? स्टेजों पे, प्रोग्रामों में दान देने वाले लोग? ऐसे लोगों की हकीकत सच में वही होती है? या धोखा, दिखावा? उसके बदले कुछ ज्यादा पाने की खातिर? दोनों ही सच हो सकते हैं शायद। इंसान-इंसान पे निर्भर है।
बहुत से ऐसे लोग, जो ऐसे-ऐसे ऑनलाइन फोटो या विडियो डालते हैं, यहाँ सफाई अभियान का हिस्सा, वहाँ सफाई अभियान का हिस्सा। यहाँ दान, वहाँ कल्याण में दिखते हैं, फोटो या विडियो में। क्या वो अपने खुद के घरों या आसपास का भी ऐसे ही ध्यान रखते हैं? या वहाँ की हकीकत कुछ और ही होती है? कई बार तो उनके अपने खाली प्लॉट, पुराने-घर सड़ांध मार रहे होते हैं, जहाँ अक्सर उनका बचपन बीता होता है। और उनके बाहर ताले लटके होते हैं। कभी-कभी तो इतने टूटे-फूटे से मकान, की अड़ौसी-पड़ोसियों को भी खतरा रहने लगे। कई पडोसी तो शायद बोल भी चुके हों ऐसा कुछ कई बार। थोड़ा बड़े होते ही, कुछ लोग तो ऐसी-ऐसी जगह शायद आना-जाना तक पसंद नहीं करते। हालाँकि, उनका बचपन वहीँ गुजरा होता है। और धरोहर बताते हैं, वो ऐसी-ऐसी जगहों को? जैसे हाथी के दाँत खाने के और, और दिखाने के और? थोड़ा ज्यादा हो गया शायद? सफाई पसंद लोगो, आओ ऐसी-ऐसी जगहों की भी खबर लें।
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