हम उस महाभारत की दुनियाँ में नहीं हैं, जहाँ राजदरबार में पाँडव और कौरव आमने-सामने हैं और मामा शकुनि अपने खास अंदाज में, भाँजे दुर्योधन कहके गोटियाँ फेंक रहा है। और कह रहा है, ये भी गई। ये भी गई। और ये भी। भांजे युधिष्ठर! कुछ और है दाँव पर लगाने को?
हम उस महाभारत की दुनियाँ में हैं, जहाँ इन जाहिल जुआरियों, जो अपने आपको योद्धा कह रहे हैं और बेहुदा किस्म के खिलाडियों के लिए, हर इंसान एक गोटी/कोड है। वो कोड जिसके नाम पे या कहो नंबरों पे, या मिश्रित चिन्हों पे, राजनीतिक पार्टियाँ चाल (दांव) चलती हैं। आखिर सबजन राजा-महराजाओं की ही तो प्रॉपर्टी हैं? भला वो इंसान थोड़े ही हैं? उनके कोई अधिकार थोड़े ही हैं, जो उनको चलने से पहले, उनसे पूछा जाए या इजाज़त ली जाए?
क्यों धर्तराष्ट्र महाराज? अब ये धर्तराष्ट्र और इनके राजदरबारों में, चारों तरफ बैठे बड़े-बड़े लोग, न्यायलय और उनके न्यायधीश? बेचारे! बिलकुल महाभारत की तरह मुसीबत में फँसे, लंजु-पंजु हुए, कोई भीष्मपितामह जैसे? या ये भी किसी पार्टी के योद्धा (खिलाड़ी) हैं? या कहना चाहिए मात्र कोड हैं। कौन सा कोड कहाँ बैठेगा, ये भी ये गुप्त सिस्टम बताता है।
इस महाभारत में, कितनी ही गोटियाँ, कोड आप जैसे, हम जैसे, पता नहीं कब और कहाँ भेंट चढ़ जाएँ। इन खिलाडियों/जुआरियों के checkmate/s के दाँवों पे! कहीं accidents में, कहीं बिमारियों में, कहीं रिश्तों में फेंकी गई दरारों में। कहीं ऐसे, तो कहीं वैसे, जालों में, जंजालों में।
इन जुआरियों से परे, कथित खिलाडियों से परे, इन राजाओं और राजदरबारों से परे, कोई और जहाँ भी है क्या? होना तो चाहिए। वो संसार, जहाँ कोई इंसान, अगर इनका हिस्सा न होना चाहे या इनकी रची बेहुदा दुनियाँ से परे रहना चाहे, तो रह सके। उस संसार में जिसमें लोकतंत्र है, जुआरियों से परे, शिकारियों से परे। उस संसार में जहाँ सजा है, कुर्सियों पे बैठकर गुंडागर्दी करते या करवाते, शामिल होते या जुर्मों के खिलाफ आँख बंद कर बैठे अधिकारियों के लिए। जहाँ जुर्म भुगतने वाले को अपना ऑफिसियल घर और नौकरी नहीं छोड़नी पड़ती, क्युंकि जुआरियों के गुप्त दाँवों के अनुसार ऐसा ही होना है। बल्की ऐसे करने या करवाने वाले अधिकारीयों को सिर्फ वो कुर्सियां ही नहीं छोड़नी पड़ती, बल्कि जेल भी जाना पड़ता है। ये कैसा संसार और कैसा लोकतंत्र, जहाँ डर ही नहीं है, इन कुर्सियों पे बैठे जुआरियों या जुआरियों का साथ देने वाले अधिकारियों को?
मुझे 2018 में, जब इस संसार और इन गुप्त लोकतंत्रों के नाम पे धब्बों की खबर होने लगी थी, तो मेरी दुनियाँ तो उल्ट-पुलट हो चुकी थी। ऐसा जानकर-समझकर, किसी भी आम इंसान की होनी थी। क्युंकि जो मुझे दिखाया जा रहा था, वो दुनियाँ, वो थी ही नहीं, जिसे इस दिमाग ने बचपन से देखना और समझना शुरू किया था। जिन्हें योद्धा और खिलाडी कहा जा रहा था, उनकी जगह, मुझे सिर्फ और सिर्फ, चाल चलते, घात लगाते, checkmate करते, जुआरी और शिकारी नजर आ रहे थे। उस ऑफिस और कैंपस में, मैंने इन कोडों को समझने के लिए ही, बेवजह बंद पड़े स्टोरों और लैबों के ताले तोड़ उन्हें खोलना शुरू कर दिया था। तब तक भी मालुम नहीं था की वो सिर्फ academics वाले ऑफिस की राजनीती की वजह से बंद नहीं थे, बल्की उनके पीछे तो उससे कहीं बड़ी राजनीती थी। धीरे-धीरे वो भी समझ आने लगा था। उसके बाद 2018 में ही VC ऑफिस में एक खास मीटिंग के बाद, मेरा Psycho पहुंचना, वो इंजेक्शन और वो हिमाचल में चैल के स्कूल का विजिट। किसी ऐसे स्कूल का, भला एक यूनिवर्सिटी में टीचर से क्या लेना-देना? और मेरा वहाँ से नौ, दो, ग्यारह होना।
उसके बाद की चालें, यूनिवर्सिटी घर छोड़ो। मेरा ओमेक्स में किराए पे घर लेना। 2-महीने किराया भी देना, मगर चालों को समझते हुए शिफ्ट न करना। क्युंकि ड्रामे हर कदम पर बहुत कुछ कह रहे थे।
अब इलाज तो होना ही था। आखिर चिड़िया पिंजरा तोड़ कहाँ तक उड़ेगी? और 2019 की कैंपस मार-पिटाई! अब तो इस दुनियाँ को जानना और जरूरी हो गया था। नहीं?
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