वही पिछले साल पहली बार देखा गया तमाशा। ट्रैक्टर पे रंग-बिरंगे पुते लड़के और ट्राली पे आग की लपटें और धुआँ-धुआँ। अंधभक्ति के तमासे और ज्यादातर कम पढ़े-लिखों की भीड़। पढ़े-लिखे जहाँ उसे स्मॉक्स्क्रीन (Smokescreen) का नाम देंगे। युरोप की कुछ खास यूनिवर्सिटीज के मीडिया कोर्सेज बेहतर समझा पाएँ शायद।
तो कुछ के लिए? किसी घर की तबाही जैसे। ठीक वैसे जैसे, किसी बेवक़्त हुई मौत के दिन, कोई छोटा पूछता है, दीदी ये क्या हो रहा है?" और आप जैसे भड़ास खुद पे ही और अपने आसपास के हालातों पे निकाल रहे हों। "भेझे से पैदल लोगों के साथ इस संसार में ऐसा ही होता है। जिनके पास ना पैसा होता और ना दिमाग।" इससे आगे जो कुछ समझ आता है, वो उस दिन के बाद के हादसों के अनुभवों से। या यूँ कहो की रीती-रिवाज़ों, आस्थाओं और धर्मों के जरिए परोसे गए, पिरोए गए, कदम दर कदम बिछाए गए जालों से, घातों से और हादसों पे हादसों से। आम आदमी उन्हें वैसे देख या समझ ही नहीं पाता। किस्मत या किसी भगवान का दिया, प्रसाद समझ निगल जाता है। ठीक ऐसे जैसे, जहर को आँख बंद कर निगल जाना। परेशान वो शायद ज्यादा होते हैं, जो उन्हें करने और करवाने वालों को देख और समझ रहे होते हैं। हादसों पे जैसे मखोलियों के झुँड और मखोलों में जैसे हादसों को भद्दे से भद्दे रुपों में पेश कर, अपने कारनामों पे ठोकना मोहर। आप ये सब देख और जानकर, सिर्फ सोचते ही रह जायेंगे की ये कैसे इंसान हैं? क्या ये सच में इंसान हैं? या जानवरों के सांचों पे इंसानों के खोल मात्र? और ये कैसी सेनाएँ हैं? आम इंसान को कीड़े-मकोड़ों की तरह रौंदती हुई जैसे। किसके लिए और क्यों?
फाइलों के संसार में और इस संसार में यही फर्क है। वहाँ पढ़े-लिखे (?) और शातीर कढ़े हुए लोग, सिर्फ फाइल-फाइल खेलते हैं, ज़िंदगी भर। और यहाँ? उन फाइलों से निकले हुए स्क्रीप्ट्स, सिर्फ शब्द या कोई नाटक ना होकर, किसी फाइल का हिस्सा भर नहीं, बल्की लोगों की ज़िंदगियों से खेलते हैं। मालूम नहीं कैंपस क्राइम वालों को क्या खतरा है, की आज तक लोगबाग उन डॉक्युमेंट्स को छुपाने की जद्दो-जहद में हैं? वो, जो उन इंस्टीटूट्स की वेबसाइट पे आम जनता को उपलभ्द होने चाहिएँ। समाज में जो कुछ हो रहा है, वो उसका मामूली-सा नमुना भर हैं। उनसे कहीं ज्यादा भद्दे और खुँखार जुर्म तो इन इंस्टीटूट्स की किलाबंद-सी दिवारों के बाहर का समाज भुगत रहा है। जिससे ना कोई खास छिपाने की जद्दो-जहद है और ना ही कोई बचाने की। क्यूँकि पढ़े-लिखे (?) और कढ़े शातीरों को मालूम है, की इन्हें इतनी आसानी से समझ नहीं आना। इसीलिए शायद, समाज के इस तबके को, ये so-called संभ्रांत लोग, कीड़े-मकोड़ों से ज्यादा समझते ही कहाँ हैं?
होलिका दहन का ये रुप, एक ऐसा ही छोटा-सा नमुना भर है। पहले देखते सुनते थे, की होलिका दहन श्याम को होता था। अब तो इसका खास वक़्त भी है शायद। कितने बजे, किस रुप-स्वरुप में, कहाँ से और किस गली से होकर गुजरेगा।
रीती-रिवाज़ वहाँ के समाज की मानसिकता का आईना भी हैं। अब होली को ही समझने की कोशिश करो और पता चलेगा, लठमार होली का रिवाज़ कहाँ-कहाँ है, आज तक? और बेहुदा रंगों, गंदे पानी का चलन आज तक भी कहाँ-कहाँ बचा हुआ है? जहाँ एक तरफ, रंगों के नाम पे ग्रीस और कीचड़ तक से लथ-पथ प्रदर्शन देखें है। तो दूसरी तरफ, डंडे और रस्सी के कोलडों की मार झेलते लोग। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता था, जैसे, होली ना खेलकर, लोग साल भर की दबी-छुपी, अंदर की भड़ास निकाल रहे हों। यही नहीं, बल्की कुछ केसों में, इससे भी थोड़ा आगे चलकर, रंग लगाने के नाम पे बेहुदगी और धक्का-मुक्की तक। जहाँ किसी के हाथ टूटे मिलें, तो किसी के दाँत। कोई लहु-लुहान मिले तो कोई, कई-कई दिन तक कोलडों के निशान और दर्द लिए। अच्छा है, वो सब आजकल तकरीबन यहाँ तो खत्म-सा है। मगर अभी जो राजनीती का घिनौना प्रदर्शन ट्रैक्टर-ट्राली के नाम पे होने लगा है, वो भी कुछ-कुछ ऐसा ही है, जैसे एक दूसरे के खिलाफ कोई दबी-छुपी सी ख़ीज निकालना। खीज़? वो भी रीती-रिवाज़ों के नाम पे? धर्म आस्थाओँ के नाम पे?
पता है, थापे दिवार पे कब लगते हैं और पेपर पे कब? थापे में वायरस भी छुपकर बैठा होता है? और घी और मेहँदी के थापे में अलग-अलग तरह की मोहर भी होती है? मेहँदी पे बुलेट (गणेश) भी छिपा हो सकता है? और घी पे वायरस? और भी कितना कुछ, एक छोटा-सा थापे का रिवाज़ बता सकता है? रीती-रिवाज़ों के कोढों पे एक नहीं, बल्की कितनी ही किताबें लिखी जा सकती हैं। और इन कोढों में छुपा ज्ञान-विज्ञान, आम आदमी को कैसे-कैसे ढालने के काम आता है, इन सेनाओं के? और राजनीतिक पार्टियों के? सामने होकर भी, आपकी ज़िंदगी का अहम हिस्सा होकर भी, छुपा हुआ ये रहस्य्मयी संसार। कौन चला रहा है इसे? भगवान? चलो, भगवान ही नाम दे देते हैं, इन रहस्य्मय शैतानों को। मगर कहाँ कौन-सा या कहना चाहिए की कौन-से वाले भगवानों की पार्टियाँ या कम्पनियाँ (फ़ैक्टरियाँ) काम पे लगी हैं, उन्हें भी जानो-पहचानों। हम धीरे-धीरे आपके बहुत आसपास से होकर, दूर, आपसे बहुत दूर बैठे, उन भगवानों या भगवानियों, देवों या देविओं से मिलाने या उनके हूबहू दर्शन करवाने चलेंगे। तो अगर आपको वो दर्शन चाहियें, तो साथ रहिएगा इस यात्रा पे।
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