वो फाइल जो खाख खा रही है, मेज पर तुम्हारी
क्या मालूम है तुम्हें, खा गई है क्या-क्या अब तब?
और अब क्या-क्या और खाने जा रही है?
उन खूनों के क्या हिस्सेदार नहीं तुम?
जो चल निकले या निकाल दिए गए दुनियाँ से
तुम्हारी इन खाख-खाती फाइलों के युद्धों ने।
दिख कुछ भी नहीं रहा?
मगर, फिर भी साफ-साफ है सब।
खेल ये कैसा, जिसमें झाड़-मात्र, आम आदमी
बड़े-बड़े साँड़ों के इस खेल में,
ठेकेदार उस आम आदमी की ज़िंदगी के फैसलों के,
वो सब अहम आदमी, जिन्हें ठेकेदारियाँ तो लेनी आती हैं
मगर नहीं पता तो ये, की क्या होती है जिम्मेदारी?
No comments:
Post a Comment