रंगो को मिलाओ ना ऐसे,
की वो कालिख़ बन जाएँ।
उन्हें सजाओ तुम ऐसे,
की वो इंदरधनुष-से खिल जाएँ।
कुछ दिन पहले कॉल आती है, किसी पब्लिकेशन हाउस से। उसके बाद एक ईमेल मिलती है। और दिमाग कहीं अटक जाता है, कॉन्ट्रैक्ट के नमुने पे। क्या है ये? पैसे के लिए, कितना गिरा जा सकता है? मुझे कुछ ऐसा ही समझ आया। बाकी हकीकत वही जानें। हो सकता है, कुछ पॉइंट्स मेरी समझ से बाहर हों।
जब आप economically चारों तरफ से ब्लॉक हों, तो सीधी सी बात, पैसे तो चाहिएँ। इस संसार में पैसे के बैगर ज़िंदगी कहाँ चलती हैं? हाँ। रेंगती जरुर हैं। या कहीं-कहीं शायद चलती भी हैं? खैर। या यूँ कहिये की इकनॉमिक ब्लॉक अच्छा तरीका है, किसी को अपनी terms and conditions मनवाने का?
थोड़ा और समझने के लिए, जहाँ कैंपस क्राइम सीरीज पब्लिश की हुई है, उसी जगह फिर जाओ। और उन केस स्टडीज़ को फ्री ज़ोन से मुक़्त करके देखो। अब इतने महान पब्लिकेशन कहाँ होते हैं, की आप हों भारत में और वो कहें, फलाना-धमकाना किताब हमने किसी शुक्र, शनि, चाँद, या मंगल ग्रह पे पब्लिश कर दी हैं? और फलाना-धमकाना वाली किताब आप पब्लिश नहीं कर सकते। क्यूँकि, वो शब्दों ही शब्दों में हमारी असलियत का नमुना दिखा रही है। हथियारों वालों को किताबों से डर? अरे भारत जैसे देश में तो वैसे ही किताबें पढ़ने वाले कितने हैं? और राजनीति के बाजार में तो वैसे भी, कुछ का कुछ होता है या बनता है।
इन राजनीतिक पार्टियों की भाषा में ही बात करें, तो कुछ-कुछ ऐसे है, जैसे तम्बाकु, गुटका, पान जैसे धंधों के उत्पादन वाली पार्टियों की तुलना, हथियारों के उत्पादन के धंधों वाली पार्टियों से करना।
Oh No! सिर्फ़ यही कह सकते हैं, आप? खासकर, इस दौरान जो घटनाक्रम चलते हैं उनपे। क्या हो रहा ये सब? या हो सकता है, मुझे ठीक से समझ नहीं आया हो?
क्या रास्ता है, तानाशाहों के जाल से मुक्ति का?
ऐसा भी नहीं की मुझे कोई राजनीतिक पार्टी खास पसंद है। मगर बीजेपी? ये तो आदमखोर हैं। और किसी भी हाल में आदमखोरों से मुक्ति चाहिए। थोड़ा सीधा-सीधा अगर कोई समझा पाए? और क्या रास्ता है इस "Economic Block Zone" से निकलने का, बेहुदा अवरोधों को या उनके परिणामों को झेले बग़ैर?
या शायद एक संसार ऐसा भी हो जहाँ पैसे के बिना भी ज़िंदगी ठीक ठाक चलती हों?
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